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इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने POCSO मामलों में गैर-समझौता रुख बरकरार रखा
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए पुष्टि की कि यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम (POCSO अधिनियम) के तहत बाल शोषण के मामलों को केवल आरोपी और नाबालिग पीड़ित के बीच समझौते के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता। संजीव कुमार बनाम राज्य के मामले में, न्यायमूर्ति समित गोपाल ने कानूनी कार्यवाही के दौरान नाबालिग अभियोक्ता की सहमति की महत्वहीनता को रेखांकित किया, जिसमें समझौते के किसी भी प्रयास भी शामिल हैं।
न्यायमूर्ति गोपाल ने स्पष्ट किया कि POCSO अधिनियम के कड़े प्रावधान आरोपी और पीड़ित के बीच किसी भी संभावित समझौते को दरकिनार कर देते हैं। अधिनियम की एक विशेष कानून के रूप में स्थिति पर जोर देते हुए, न्यायालय ने इसके तहत शुरू की गई कार्यवाही की अपरिवर्तनीयता को दोहराया, भले ही इसमें शामिल पक्षों के बीच बाद में कोई समझौता क्यों न हो।
यह फैसला समन और संज्ञान आदेशों को चुनौती देने वाली याचिका से उपजा है, जिसमें भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और पोक्सो अधिनियम की विभिन्न धाराओं के तहत आरोपियों के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को रोकने की मांग की गई है। आरोपियों ने एफआईआर दर्ज होने के बाद हुए कथित समझौते के आधार पर समाधान के लिए तर्क दिया, जिसका पीड़िता के वकील ने समर्थन किया।
हालांकि, न्यायालय ने मिसाल पर भरोसा करते हुए कहा कि विशेष कानूनों के तहत दंडनीय अपराधों से जुड़े मामलों में समझौते का कोई प्रभाव नहीं होता। इसने बलात्कार जैसे अपराधों की गंभीरता और पीड़ित के सम्मान की रक्षा की अनिवार्यता पर जोर दिया, ऐसे मामलों में समझौते के किसी भी संभावित प्रभाव को नकार दिया।
वरिष्ठ अधिवक्ता प्रेम प्रकाश और अधिवक्ता दूध नाथ यादव ने अभियुक्त की ओर से पैरवी की, जबकि सरकारी अधिवक्ता रमेश कुमार ने विपक्षी पक्ष की ओर से पैरवी की।
याचिका पर विचार करने से इंकार करके तथा POCSO अधिनियम की कार्यवाही की अनुल्लंघनीयता पर बल देते हुए, इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय बाल उत्पीड़न के मामलों में न्याय से समझौता करने के विरुद्ध एक दृढ़ संदेश देता है, तथा पीड़ितों के लिए कानूनी सुरक्षा उपायों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित करता है तथा उनकी सुरक्षा के लिए बनाए गए विशेष कानून की अखंडता को बनाए रखता है।
लेखक: अनुष्का तरानिया
समाचार लेखक, एमआईटी एडीटी यूनिवर्सिटी