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इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट से कहा, जमानत देने से पहले "पीड़ित प्रभाव आकलन रिपोर्ट" पर विचार किया जाना चाहिए

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इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया कि जमानत के मामलों में, जहां आपराधिक अपील लंबे समय से लंबित है, पीड़ित पर अपराध के प्रभाव का विवरण देने वाली 'पीड़ित प्रभाव आकलन रिपोर्ट' को ध्यान में रखा जाना चाहिए। माननीय उच्च न्यायालय ने सुझाव दिया कि जहां अभियुक्तों ने सीआरपीसी के तहत जेलों में लंबे समय तक या आधी से अधिक सजा काट ली है, वहां पीड़ित के साथ परामर्श करके पीड़ित प्रभाव आकलन रिपोर्ट प्रदान की जा सकती है कि जमानत का पीड़ित पर क्या प्रभाव पड़ेगा।

न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय की खंडपीठ ने शीर्ष अदालत के समक्ष दायर एक हलफनामे पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय को नोटिस जारी किया, जिसमें उन व्यापक मापदंडों के बारे में पूछा गया है, जिन पर लंबे समय से लंबित अपीलों में जमानत देने पर विचार किया जा सकता है।

"लोग इतने लंबे समय तक हिरासत में नहीं रह सकते; हम केवल इस आधार पर कुछ मानदंड रखना चाहते हैं कि अपीलों पर वर्षों से सुनवाई नहीं हुई है।"

नोटिस के जवाब में, हाईकोर्ट ने कहा कि जमानत देने से पहले आरोपी पर कुछ शर्तें लगाई जानी चाहिए, जैसे कि "उसे यात्रा करने से रोकना" या "उसे किसी इलाके में रहने का निर्देश देना"। ऐसा न करने पर पीड़ित को खतरा हो सकता है या सबूतों से छेड़छाड़ हो सकती है।

उच्च न्यायालय ने आगे सुझाव दिया कि जब तक लंबे समय से लंबित अपीलों (आपराधिक) पर निर्णय लेने के लिए विशेष अदालतें या पीठें नहीं बनाई जातीं, तब तक अभियुक्तों को "यांत्रिक तरीके से" लाभ नहीं दिया जा सकता। संगठित अपराध या सफेदपोश अपराध में शामिल व्यक्ति को जमानत देने के लिए "अलग मानदंड विकसित किए जाने चाहिए" क्योंकि वे आदतन अपराधी होते हैं जो परिष्कृत तरीके से अपराध करते हैं।

इससे पहले, यूपी सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को एक नोट प्रस्तुत किया था, जिसमें जमानत याचिका मंजूर करने या उस पर विचार करने से पहले दो मानदंड अपनाने का सुझाव दिया गया था:

क. अभियुक्त द्वारा वास्तविक सजा काटी गई कुल अवधि;

ख. आपराधिक अपील का लंबित रहना;

ग. अपराध की प्रकृति;

घ. आपराधिक इतिहास;

ई. अपील दायर करने में जानबूझकर देरी


लेखक: पपीहा घोषाल