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वैवाहिक विवाद में बच्चे के प्राकृतिक अधिकार की बलि दी जाती है - दिल्ली कोर्ट
दिल्ली की एक अदालत ने कहा कि वैवाहिक विवादों में बच्चे के प्राकृतिक अधिकारों की बलि माता-पिता के अहंकार की भेंट चढ़ जाती है।
"एक बच्चा स्वाभाविक रूप से माता-पिता द्वारा देखभाल, स्नेह और सहायता पाने का हकदार है। दुर्भाग्य से, वैवाहिक विवाद में बच्चे के प्राकृतिक अधिकार की बलि दे दी जाती है। इसलिए, ऐसे मामलों में, अदालत पर बिना किसी जल्दबाजी के मुलाकात के अधिकार के मुद्दे पर फैसला करने का कर्तव्य है।"
न्यायालय ने यह बात एक महिला की उस याचिका को स्वीकार करते हुए कही, जिसमें उसने मजिस्ट्रेट अदालत में अपने नाबालिग बेटे से मुलाकात के अधिकार की मांग की थी।
महिला ने दलील दी कि वह 2015 (उसके जन्म) से ही अपने बेटे का पालन-पोषण कर रही है। उसने दलील दी कि बच्चा साढ़े चार साल का हो गया है और वह अपने पिता के घर के प्रभाव को समझने के लिए पर्याप्त बड़ा नहीं है। नाबालिग बेटे को अपनी इच्छा व्यक्त करने के लिए केवल 5 मिनट का समय दिया गया था और इस आधार पर मजिस्ट्रेट कोर्ट ने उसकी याचिका खारिज कर दी।
इसके विपरीत, पति ने तर्क दिया कि बच्चे की मां ने पिछले 5 वर्षों से उनके बेटे को छोड़ दिया है और इसलिए मजिस्ट्रेट अदालत ने उससे किसी भी तरह की बातचीत से इनकार कर दिया।
दिल्ली कोर्ट ने कहा कि मजिस्ट्रेट कोर्ट ने महिला के खिलाफ मां और नाबालिग बच्चे के बीच बातचीत के आधार पर फैसला सुनाया, साथ ही इस तथ्य के आधार पर भी फैसला सुनाया कि वह एक मां है और पिछले पांच सालों से अलग रह रही है। ट्रायल कोर्ट ने यह दिखाने के लिए कोई कारण नहीं बताया कि मां के साथ बातचीत का बच्चे पर किस तरह से प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। 11 साल की बच्ची को मां से वंचित करना मानवाधिकारों का उल्लंघन है।
अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा ने आदेश को रद्द कर दिया क्योंकि वे स्वयं यह कारण नहीं समझ पाए कि याचिकाकर्ता को बच्चे से मिलने के अधिकार से वंचित करना बच्चे के लिए किस प्रकार स्वस्थ्य होगा।
लेखक: पपीहा घोषाल