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बॉम्बे हाईकोर्ट - एक कार्यकारी आदेश को सरकार द्वारा जारी किए गए बाद के कार्यकारी आदेश द्वारा रद्द किया जा सकता है

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20 जून को बॉम्बे उच्च न्यायालय ने एकनाथ शिंदे सरकार द्वारा महाराष्ट्र राज्य अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग में नियुक्तियों को रद्द करने के फैसले को रद्द करने से इनकार कर दिया।

न्यायमूर्ति जी.एस. पटेल और न्यायमूर्ति नीला गोखले की खंडपीठ ने कहा कि सरकार में परिवर्तन के बाद सामाजिक नीतियों में संशोधन लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अंतर्निहित अंग है और केवल इस आधार पर इसे मनमाना या दुर्भावनापूर्ण नहीं माना जाना चाहिए।

पीठ ने आगे कहा कि उपरोक्त पदों पर याचिकाकर्ताओं की नियुक्तियां एक कार्यकारी आदेश के माध्यम से की गई थी, जिसे सरकार द्वारा बाद में जारी एक कार्यकारी आदेश द्वारा रद्द किया जा सकता है।

उच्च न्यायालय ने यह निर्णय तीन पेंशनभोगियों द्वारा दायर याचिका के जवाब में दिया, जिन्होंने राज्य आयोग के अध्यक्ष और सदस्य के रूप में अपनी नियुक्तियों को रद्द करने का विरोध किया था।

याचिकाकर्ताओं में से एक व्यक्ति को आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया, जबकि अन्य दो को सदस्य नियुक्त किया गया, जिनमें से प्रत्येक का कार्यकाल तीन वर्ष का होगा।

याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व करने वाले अधिवक्ता सतीश तालेकर ने दायर याचिका में दावा किया कि जून 2022 में एकनाथ शिंदे सरकार द्वारा पदभार ग्रहण करने के बाद उनकी नियुक्तियाँ रद्द कर दी गईं। याचिका में आगे बताया गया कि 29 परियोजना-स्तरीय (योजना समीक्षा) समितियों में नियुक्त किए गए 197 अध्यक्षों और गैर-आधिकारिक सदस्यों की नियुक्तियाँ भी रद्द कर दी गईं। याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाया कि ये बदलाव सत्तारूढ़ सरकार से जुड़े समर्थकों और कार्यकर्ताओं को समायोजित करने के लिए किए गए थे। तालेकर ने तर्क दिया कि ये निर्णय बिना सुनवाई या कारण बताए लिए गए, जिससे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ।

राज्य की ओर से महाधिवक्ता डॉ. बीरेंद्र सराफ ने याचिका के खिलाफ दलीलें पेश कीं और सरकार के फैसले का समर्थन किया।

डॉ. सराफ ने तर्क दिया कि विचाराधीन पद सिविल पद नहीं थे, तथा आयोग के सदस्य सरकार के विवेक पर कार्य करते थे।

पीठ ने डॉ. सराफ की दलील से सहमति जताते हुए कहा कि याचिकाकर्ताओं का नामांकन पूरी तरह से सरकार के विवेक पर आधारित था, इसमें किसी चयन प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया था और न ही आम जनता से आवेदन आमंत्रित किए गए थे।

न्यायालय ने इस बात पर भी जोर दिया कि याचिकाकर्ताओं की नियुक्तियां एक कार्यकारी आदेश के माध्यम से की गई थीं, जिसे सरकार द्वारा जारी किए गए बाद के कार्यकारी आदेश द्वारा रद्द किया जा सकता है।

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