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दिल्ली उच्च न्यायालय: एससी/एसटी अत्याचार मामले में जमानत के लिए शिकायतकर्ता की आवाज जरूरी
दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा कि अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत दर्ज मामलों में शिकायतकर्ता की सुनवाई किए बिना जमानत नहीं दी जा सकती। 14 फरवरी को दिए गए आदेश में न्यायमूर्ति नवीन चावला ने ऐसे मामलों में पीड़ित की भागीदारी की अनिवार्य प्रकृति पर जोर दिया।
यह फैसला भारतीय दंड संहिता के तहत बलात्कार, सार्वजनिक रूप से कपड़े उतारना और आपराधिक धमकी के आरोपों का सामना कर रहे एक आरोपी को जमानत देने के ट्रायल कोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका पर दिया गया। एससी और एसटी एक्ट की धारा 3(1)(डब्ल्यू)(आई) और 3(2)(वी) भी लगाई गई। शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि उसे सूचित किए बिना जमानत आदेश जारी किया गया।
न्यायमूर्ति चावला ने जोर देकर कहा, "एससी एवं एसटी अधिनियम की धारा 15ए की उपधारा (3) और (5) का अनुपालन अनिवार्य प्रकृति का है और इसके उल्लंघन में दी गई जमानत केवल इसी आधार पर रद्द की जा सकती है।"
न्यायालय ने जमानत आवेदन को विशेष न्यायाधीश की फाइल में बहाल करने का आदेश दिया, साथ ही निर्देश दिया कि शिकायतकर्ता को सुनवाई का अवसर देने के बाद इस पर विचार किया जाए। आरोपी को तत्काल हिरासत से 15 दिन की राहत दी गई, जो अगले आदेश तक जारी रहेगी।
वरिष्ठ अधिवक्ता त्रिदीप पेस और पीड़िता का प्रतिनिधित्व करने वाली कानूनी टीम ने फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि यह शिकायतकर्ताओं के अंतर्निहित अधिकारों को बरकरार रखता है और प्रक्रियात्मक मामलों में निष्पक्षता पर जोर देता है।
उच्च न्यायालय का निर्णय पीड़ित-केंद्रित न्यायशास्त्र के सिद्धांतों के अनुरूप है और यह सुनिश्चित करता है कि अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ अत्याचारों से संबंधित कानूनी कार्यवाही में शिकायतकर्ता की आवाज़ अभिन्न अंग है। यह निर्णय एक महत्वपूर्ण कानूनी सुरक्षा के रूप में कार्य करता है, जो प्रक्रियात्मक न्याय और हाशिए पर पड़े समुदायों के अधिकारों की सुरक्षा के प्रति प्रतिबद्धता को मजबूत करता है।
लेखक : अनुष्का तरानिया
समाचार लेखक, एमआईटी एडीटी यूनिवर्सिटी