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पटना उच्च न्यायालय ने बिहार के आरक्षण संशोधन को खारिज किया
पटना उच्च न्यायालय ने गुरुवार को एक महत्वपूर्ण फैसले में बिहार विधानमंडल द्वारा पारित 2023 संशोधनों को रद्द कर दिया, जिसका उद्देश्य पिछड़ा वर्ग, अत्यंत पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (एससी/एसटी) के लिए आरक्षण को 50% से बढ़ाकर 65% करना था।
मुख्य न्यायाधीश के विनोद चंद्रन और न्यायमूर्ति हरीश कुमार की खंडपीठ ने संशोधनों को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं के जवाब में यह फैसला सुनाया। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि संशोधन रोजगार और शिक्षा में समान अवसर के सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं।
बिहार पदों और सेवाओं में रिक्तियों का आरक्षण (संशोधन) अधिनियम, 2023 और बिहार (शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश में) आरक्षण (संशोधन) अधिनियम, 2023 में शामिल संशोधनों को संविधान के दायरे से बाहर माना गया। न्यायालय ने माना कि संशोधनों ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 के तहत समानता के प्रावधानों का उल्लंघन किया है।
अपने फैसले में न्यायाधीशों ने इस बात पर जोर दिया कि आरक्षण नीति को समानता के संवैधानिक जनादेश को कमजोर नहीं करना चाहिए। न्यायालय ने कहा, "प्रस्तावित संशोधन संविधान में निहित सभी नागरिकों के लिए समान अवसर के अधिकार का उल्लंघन करते हैं।"
बिहार विधानमंडल ने तर्क दिया था कि संशोधन सरकारी सेवाओं में एससी/एसटी और अन्य पिछड़े वर्गों के अनुपातहीन रूप से कम प्रतिनिधित्व को दर्शाने वाले आंकड़ों पर आधारित थे। नतीजतन, इन समूहों के लिए आरक्षण कोटा बढ़ाकर 65% कर दिया गया, जिससे ओपन मेरिट श्रेणी के लिए हिस्सेदारी काफी कम होकर 35% हो गई।
सेवाओं और पदों पर सीधी भर्ती के लिए संशोधित आरक्षण संरचना निम्नानुसार निर्दिष्ट की गई:
ओपन मेरिट श्रेणी: 35%
आरक्षित श्रेणी: 65%
अनुसूचित जाति: 20%
अनुसूचित जनजाति: 2%
अत्यंत पिछड़ा वर्ग: 25%
पिछड़ा वर्ग: 18%
इसी प्रकार, राज्य-सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए आरक्षण संरचना को भी समान प्रतिशत के साथ संरेखित किया गया।
इन संशोधनों को खारिज करने का न्यायालय का फैसला भारत में आरक्षण नीतियों पर चल रही बहस में एक महत्वपूर्ण मोड़ है। न्यायाधीशों ने कहा कि आरक्षण प्रतिशत में पर्याप्त वृद्धि न केवल समान अवसर के सिद्धांत का उल्लंघन करती है, बल्कि संविधान द्वारा इच्छित संतुलन को भी बाधित करती है।
न्यायालय ने कहा, "संशोधन आरक्षण की स्वीकार्य सीमा से परे हैं और रोजगार तथा शिक्षा क्षेत्रों में समान अवसर के संतुलन को बिगाड़ते हैं।" इस फैसले से देश भर में इसी तरह की आरक्षण नीतियों पर दूरगामी प्रभाव पड़ने की उम्मीद है। बिहार सरकार को अब संवैधानिक प्रावधानों का पालन करते हुए सभी समुदायों का उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के अपने दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करने का काम सौंपा गया है।
चूंकि राज्य अपने अगले कदमों पर विचार कर रहा है, यह निर्णय विधायी अतिक्रमण के विरुद्ध संवैधानिक आदेशों की सुरक्षा में न्यायपालिका की भूमिका को मजबूत करता है।
लेखक: अनुष्का तरानिया
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