नंगे कृत्य
दंड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 2005

2005 का अधिनियम संख्या 25 [23 जून, 2005] दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 का और संशोधन करने के लिए अधिनियम।
भारत गणराज्य के छप्पनवें वर्ष में संसद द्वारा निम्नलिखित रूप में यह अधिनियम बन जाए:-
1. संक्षिप्त नाम और प्रारंभ.-(1) इस अधिनियम का संक्षिप्त नाम दंड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 2005 है।
(2) इस अधिनियम में अन्यथा उपबंधित के सिवाय, यह उस तारीख को प्रवृत्त होगा जिसे केन्द्रीय सरकार, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, नियत करे।
2. धारा 20 का संशोधन.-दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) (जिसे इसमें इसके पश्चात् मूल अधिनियम कहा जाएगा) की धारा 20 में, उपधारा (4) के पश्चात् निम्नलिखित उपधारा अंतःस्थापित की जाएगी, अर्थात्:-
"(4क) राज्य सरकार, साधारण या विशेष आदेश द्वारा तथा ऐसे नियंत्रण और निदेशों के अधीन रहते हुए, जिन्हें वह अधिरोपित करना ठीक समझे, उपधारा (4) के अधीन अपनी शक्तियां जिला मजिस्ट्रेट को प्रत्यायोजित कर सकेगी।"
3. धारा 24 का संशोधन.-मूल अधिनियम की धारा 24 की उपधारा (6) के परन्तुक के पश्चात् निम्नलिखित स्पष्टीकरण अंतःस्थापित किया जाएगा और 18 दिसम्बर, 1978 से अंतःस्थापित किया गया समझा जाएगा, अर्थात्:-
स्पष्टीकरण-इस उपधारा के प्रयोजनों के लिए,-
(क) "अभियोजन अधिकारियों का नियमित संवर्ग" से अभियोजन अधिकारियों का संवर्ग अभिप्रेत है, जिसमें लोक अभियोजक का पद, चाहे वह किसी भी नाम से ज्ञात हो, सम्मिलित है और जो उस पद पर सहायक लोक अभियोजकों, चाहे वह किसी भी नाम से ज्ञात हो, की पदोन्नति का उपबंध करता है;
(ख) "अभियोजन अधिकारी" से ऐसा व्यक्ति अभिप्रेत है, चाहे वह किसी भी नाम से ज्ञात हो, जो इस संहिता के अधीन लोक अभियोजक, अपर लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक के कृत्यों का पालन करने के लिए नियुक्त किया गया हो।'
4. नई धारा 25-ए का अंतःस्थापन.-मूल अधिनियम के अध्याय 2 में धारा 25 के पश्चात् निम्नलिखित धारा अंतःस्थापित की जाएगी, अर्थात्:-
"25ए. अभियोजन निदेशालय.-(1) राज्य सरकार एक अभियोजन निदेशालय स्थापित कर सकेगी, जिसमें एक अभियोजन निदेशक और उतने अभियोजन उपनिदेशक होंगे, जितने वह ठीक समझे।
(2) कोई व्यक्ति अभियोजन निदेशक या उप अभियोजन निदेशक के रूप में नियुक्त होने के लिए तभी पात्र होगा, जब वह अधिवक्ता के रूप में प्रैक्टिस कर रहा हो।
कम से कम दस वर्ष के लिए नियुक्त किया जाएगा और ऐसी नियुक्ति उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सहमति से की जाएगी।
(3) अभियोजन निदेशालय का प्रमुख अभियोजन निदेशक होगा, जो राज्य में गृह विभाग के प्रमुख के प्रशासनिक नियंत्रण के अधीन कार्य करेगा।
(4) प्रत्येक उप अभियोजन निदेशक अभियोजन निदेशक के अधीनस्थ होगा।
(5) उच्च न्यायालय में मामलों का संचालन करने के लिए धारा 24 की उपधारा (1) या उपधारा (8) के अधीन राज्य सरकार द्वारा नियुक्त प्रत्येक लोक अभियोजक, अपर लोक अभियोजक और विशेष लोक अभियोजक अभियोजन निदेशक के अधीनस्थ होगा।
(6) जिला न्यायालयों में मामलों का संचालन करने के लिए धारा 24 की उपधारा (3) या, यथास्थिति, उपधारा (8) के अधीन राज्य सरकार द्वारा नियुक्त प्रत्येक लोक अभियोजक, अपर लोक अभियोजक और विशेष लोक अभियोजक तथा धारा 25 की उपधारा (1) के अधीन नियुक्त प्रत्येक सहायक लोक अभियोजक अभियोजन उप निदेशक के अधीनस्थ होगा।
(7) अभियोजन निदेशक और अभियोजन उपनिदेशकों की शक्तियां और कृत्य तथा वे क्षेत्र जिनके लिए अभियोजन उपनिदेशकों में से प्रत्येक की नियुक्ति की गई है, वे होंगे जिन्हें राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा विनिर्दिष्ट करे।
(8) इस धारा के उपबंध राज्य के महाधिवक्ता पर लोक अभियोजक के कृत्यों का पालन करते समय लागू नहीं होंगे।"
5. धारा 29 का संशोधन.-मूल अधिनियम की धारा 29 में,-
(क) उपधारा (2) में, "पांच हजार रुपए" शब्दों के स्थान पर, "दस हजार रुपए" शब्द रखे जाएंगे;
(ख) उपधारा (3) में, "एक हजार रुपए" शब्दों के स्थान पर, "पांच हजार रुपए" शब्द प्रतिस्थापित किए जाएंगे।
6. धारा 46 का संशोधन.-मूल अधिनियम की धारा 46 में उपधारा (3) के पश्चात् निम्नलिखित उपधारा अंतःस्थापित की जाएगी, अर्थात्:-
"(4) अपवादात्मक परिस्थितियों को छोड़कर, किसी भी महिला को सूर्यास्त के पश्चात और सूर्योदय से पूर्व गिरफ्तार नहीं किया जाएगा, और जहां ऐसी अपवादात्मक परिस्थितियां विद्यमान हों, वहां महिला पुलिस अधिकारी लिखित रिपोर्ट देकर प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट की पूर्व अनुमति प्राप्त करेगी, जिसके स्थानीय क्षेत्राधिकार के अंदर अपराध किया गया हो या गिरफ्तारी की जानी हो।"
7. नई धारा 50ए का अंतःस्थापन.-मूल अधिनियम की धारा 50 के पश्चात् निम्नलिखित धारा अंतःस्थापित की जाएगी, अर्थात्:-
"50ए. गिरफ्तारी करने वाले व्यक्ति का गिरफ्तारी आदि के बारे में नामित व्यक्ति को सूचना देने का दायित्व।-(1) इस संहिता के अधीन कोई गिरफ्तारी करने वाला प्रत्येक पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति ऐसी गिरफ्तारी और उस स्थान के बारे में सूचना, जहां गिरफ्तार व्यक्ति को रखा गया है, अपने किसी मित्र, रिश्तेदार या ऐसे अन्य व्यक्ति को, जिसे गिरफ्तार व्यक्ति द्वारा ऐसी सूचना देने के प्रयोजन के लिए प्रकट किया जाए या नामित किया जाए, तत्काल देगा।
(2) पुलिस अधिकारी गिरफ्तार व्यक्ति को पुलिस थाने लाते ही उपधारा (1) के अधीन उसके अधिकारों की जानकारी देगा।
(3) इस तथ्य की प्रविष्टि कि ऐसे व्यक्ति की गिरफ्तारी की सूचना किसे दी गई है, पुलिस थाने में रखी जाने वाली पुस्तक में ऐसे प्ररूप में की जाएगी जैसा राज्य सरकार द्वारा इस निमित्त विहित किया जाए।
(4) उस मजिस्ट्रेट का, जिसके समक्ष ऐसा गिरफ्तार व्यक्ति पेश किया जाता है, यह कर्तव्य होगा कि वह स्वयं यह समाधान कर ले कि ऐसे गिरफ्तार व्यक्ति के संबंध में उपधारा (2) और उपधारा (3) की अपेक्षाओं का अनुपालन कर दिया गया है।"।
8. धारा 53 का संशोधन.-मूल अधिनियम की धारा 53 में, स्पष्टीकरण के स्थान पर निम्नलिखित स्पष्टीकरण प्रतिस्थापित किया जाएगा, अर्थात्:-
स्पष्टीकरण-इस धारा में तथा धारा 53क और 54 में,-
(क) "परीक्षण" में रक्त, रक्त के धब्बे, वीर्य, यौन अपराधों के मामले में स्वाब, थूक और पसीना, बालों के नमूने और उंगली के नाखून की कतरनों की जांच शामिल होगी, जिसमें डीएनए प्रोफाइलिंग और ऐसे अन्य परीक्षण शामिल हैं जिन्हें पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी किसी विशेष मामले में आवश्यक समझता है;
(ख) "पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी" से ऐसा चिकित्सा व्यवसायी अभिप्रेत है, जिसके पास भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद अधिनियम, 1956 (1956 का 102) की धारा 2 के खंड (ज) में परिभाषित कोई चिकित्सा योग्यता है और जिसका नाम राज्य चिकित्सा रजिस्टर में दर्ज है।'
9. नई धारा 53ए का अंतःस्थापन.-मूल अधिनियम की धारा 53 के पश्चात् निम्नलिखित धारा अंतःस्थापित की जाएगी, अर्थात्:-
"५३ए. बलात्कार के आरोपी व्यक्ति की चिकित्सा व्यवसायी द्वारा परीक्षा।-(१) जब किसी व्यक्ति को बलात्कार का अपराध करने या बलात्कार करने का प्रयास करने के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है और यह मानने के लिए उचित आधार हैं कि उसके शरीर की परीक्षा से ऐसे अपराध के किए जाने के बारे में साक्ष्य मिलेगा, तो सरकार या स्थानीय प्राधिकारी द्वारा चलाए जा रहे अस्पताल में कार्यरत पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी के लिए और जहां अपराध किया गया है उस स्थान से सोलह किलोमीटर की परिधि में ऐसे व्यवसायी की अनुपस्थिति में, उप-निरीक्षक के पद से अन्यून पुलिस अधिकारी के अनुरोध पर कार्य करने वाले किसी अन्य पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी द्वारा और उसकी सहायता में और उसके अधीन सद्भावपूर्वक कार्य करने वाले किसी व्यक्ति के लिए यह वैध होगा कि वह बलात्कार के आरोपी व्यक्ति की जांच करे।
गिरफ्तार व्यक्ति की ऐसी जांच करने तथा उस प्रयोजन के लिए उचित रूप से आवश्यक बल का प्रयोग करने का निर्देश दिया गया है।
(2) ऐसी परीक्षा करने वाला पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी अविलंब ऐसे व्यक्ति की परीक्षा करेगा और उसकी परीक्षा की रिपोर्ट तैयार करेगा जिसमें निम्नलिखित विवरण दिए जाएंगे, अर्थात:-
(i) अभियुक्त का नाम और पता तथा उस व्यक्ति का नाम, जिसके द्वारा उसे लाया गया था,
(ii) अभियुक्त की आयु,
(iii) अभियुक्त के शरीर पर चोट के निशान, यदि कोई हों,
(iv) डीएनए प्रोफाइलिंग के लिए अभियुक्त के शरीर से ली गई सामग्री का विवरण, और
(v) अन्य महत्वपूर्ण विवरण उचित विस्तार में।
(3) रिपोर्ट में प्रत्येक निष्कर्ष के लिए स्पष्ट कारण बताए जाएंगे।
(4) परीक्षा के प्रारंभ और समापन का सही समय भी रिपोर्ट में अंकित किया जाएगा।
(5) पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी बिना विलम्ब के रिपोर्ट को अन्वेषण अधिकारी को भेजेगा, जो उसे धारा 173 में निर्दिष्ट मजिस्ट्रेट को उस धारा की उपधारा (5) के खंड (क) में निर्दिष्ट दस्तावेजों के भाग के रूप में भेजेगा।"
10. धारा 54 का संशोधन.-मूल अधिनियम की धारा 54 को उसकी उपधारा (1) के रूप में पुन:संख्यांकित किया जाएगा और इस प्रकार पुन:संख्यांकित उपधारा (1) के पश्चात् निम्नलिखित उपधारा अंत:स्थापित की जाएगी, अर्थात्:-
"(2) जहां उपधारा (1) के अधीन परीक्षा की जाती है, वहां ऐसी परीक्षा की रिपोर्ट की एक प्रति पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी द्वारा गिरफ्तार व्यक्ति को या ऐसे गिरफ्तार व्यक्ति द्वारा नामित व्यक्ति को दी जाएगी।"
11. नई धारा 54ए का अंतःस्थापन.-मूल अधिनियम की धारा 54 के पश्चात् निम्नलिखित धारा अंतःस्थापित की जाएगी, अर्थात्:-
"54ए. गिरफ्तार किए गए व्यक्ति की पहचान। जहां किसी व्यक्ति को किसी अपराध को करने के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है और किसी अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा उसकी पहचान ऐसे अपराध की जांच के प्रयोजन के लिए आवश्यक समझी जाती है, वहां अधिकारिता रखने वाला न्यायालय, पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी के अनुरोध पर, इस प्रकार गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को निर्देश दे सकता है कि वह किसी व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा ऐसी रीति से अपनी पहचान कराए, जैसी न्यायालय ठीक समझे।"
12. धारा 82 का संशोधन.-मूल अधिनियम की धारा 82 में उपधारा (3) के पश्चात् निम्नलिखित उपधाराएं अंतःस्थापित की जाएंगी, अर्थात्:-
(4) जहां उपधारा (1) के अधीन प्रकाशित उद्घोषणा किसी ऐसे व्यक्ति के संबंध में है जो भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 302, 304, 364, 367, 382, 392, 393, 394, 395, 396, 397, 398, 399, 400, 402, 436, 449, 459 या 460 के अधीन दंडनीय अपराध का अभियुक्त है और ऐसा व्यक्ति उद्घोषणा द्वारा अपेक्षित विनिर्दिष्ट स्थान और समय पर उपस्थित होने में असफल रहता है, वहां न्यायालय ऐसी जांच करने के पश्चात्, जैसी वह ठीक समझे, उसे उद्घोषित अपराधी घोषित कर सकेगा और इस आशय की घोषणा कर सकेगा।
(5) उपधारा (2) और (3) के उपबंध न्यायालय द्वारा उपधारा (4) के अधीन की गई घोषणा पर उसी प्रकार लागू होंगे, जिस प्रकार वे उपधारा (1) के अधीन प्रकाशित उद्घोषणा पर लागू होते हैं।"।
13. धारा 102 का संशोधन.-मूल अधिनियम की धारा 102 में,-
(क) उपधारा (3) में, "न्यायालय में ले जाया गया" शब्दों के पश्चात् "या जहां ऐसी संपत्ति की अभिरक्षा के लिए उचित स्थान प्राप्त करने में कठिनाई हो, या जहां संपत्ति को पुलिस अभिरक्षा में निरंतर रखना अन्वेषण के प्रयोजन के लिए आवश्यक न समझा जाए" शब्द अंतःस्थापित किए जाएंगे;
(ख) उपधारा (3) के पश्चात्, अंत में निम्नलिखित परंतुक जोड़ा जाएगा, अर्थात्:-
"परन्तु जहां उपधारा (1) के अधीन अभिगृहीत संपत्ति शीघ्र और स्वाभाविक क्षयशील है और यदि ऐसी संपत्ति पर कब्जे का हकदार व्यक्ति अज्ञात या अनुपस्थित है और ऐसी संपत्ति का मूल्य पांच सौ रुपए से कम है, तो उसे पुलिस अधीक्षक के आदेश के अधीन नीलामी द्वारा तत्काल बेचा जा सकेगा और धारा 457 और 458 के उपबंध, यथासम्भव, ऐसी बिक्री के शुद्ध आगमों पर लागू होंगे।"
14. धारा 110 का संशोधन.-मूल अधिनियम की धारा 110 के खण्ड (च) के उपखण्ड (i) में,-
(i) मद (छ) में, शब्द "या" का लोप किया जाएगा;
(ii) मद (छ) के पश्चात् निम्नलिखित मद अंतःस्थापित की जाएगी, अर्थात्:- "(ज) विदेशी विषयक अधिनियम, 1946 (1946 का 31); या"।
15. धारा 122 का संशोधन.-मूल अधिनियम की धारा 122 की उपधारा (1) के खण्ड (ख) में, "प्रतिभूतियों के बिना बन्धपत्र" शब्दों के स्थान पर, "प्रतिभूतियों सहित या रहित बन्धपत्र" शब्द प्रतिस्थापित किए जाएंगे।
16. नई धारा 144-क का अंतःस्थापन.-मूल अधिनियम के अध्याय 10 में, उपशीर्षक "ग-न्यूसेंस या आशंकाजनक खतरे के अत्यावश्यक मामले" के अंतर्गत, धारा 144 के पश्चात् निम्नलिखित धारा अंतःस्थापित की जाएगी, अर्थात्:-
'१४४ए. जुलूस या सामूहिक ड्रिल या शस्त्रों सहित सामूहिक प्रशिक्षण में शस्त्र ले जाने पर रोक लगाने की शक्ति।-(१) जिला मजिस्ट्रेट, जब भी वह यह समझे कि
यदि लोक शांति या लोक सुरक्षा के संरक्षण के लिए या लोक व्यवस्था बनाए रखने के लिए ऐसा करना आवश्यक हो, तो वह लोक सूचना या आदेश द्वारा अपने अधिकार क्षेत्र की स्थानीय सीमाओं के भीतर किसी क्षेत्र में किसी जुलूस में शस्त्र ले जाने या किसी सार्वजनिक स्थान पर शस्त्रों के साथ सामूहिक ड्रिल या सामूहिक प्रशिक्षण आयोजित करने या उसमें भाग लेने पर प्रतिषेध कर सकेगा।
(2) इस धारा के अधीन जारी की गई सार्वजनिक सूचना या दिया गया आदेश किसी विशिष्ट व्यक्ति या किसी समुदाय, दल या संगठन के व्यक्तियों को निर्देशित किया जा सकेगा।
(3) इस धारा के अधीन जारी की गई कोई सार्वजनिक सूचना या बनाया गया आदेश, उसके जारी किए जाने या बनाए जाने की तारीख से तीन मास से अधिक समय तक प्रवृत्त नहीं रहेगा।
(4) यदि राज्य सरकार लोक शांति या लोक सुरक्षा के परिरक्षण के लिए या लोक व्यवस्था बनाए रखने के लिए ऐसा करना आवश्यक समझती है तो वह अधिसूचना द्वारा निदेश दे सकेगी कि जिला मजिस्ट्रेट द्वारा इस धारा के अधीन जारी की गई लोक सूचना या दिया गया आदेश, उस तारीख से छह मास से अधिक की अतिरिक्त अवधि के लिए प्रवृत्त रहेगा जिसको जिला मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसी लोक सूचना या आदेश जारी किया गया था या दिया गया था, यदि ऐसा निदेश न दिया गया होता तो वह समाप्त हो जाता, जैसा कि वह उक्त अधिसूचना में विनिर्दिष्ट करे।
(5) राज्य सरकार, ऐसे नियंत्रण और निदेशों के अधीन रहते हुए, जिन्हें वह अधिरोपित करना ठीक समझे, साधारण या विशेष आदेश द्वारा, उपधारा (4) के अधीन अपनी शक्तियां जिला मजिस्ट्रेट को प्रत्यायोजित कर सकेगी।
स्पष्टीकरण.- शब्द "आयुध" का वही अर्थ होगा जो भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 153एए में है।'
17. नई धारा 164-क का अंतःस्थापन.-मूल अधिनियम की धारा 164 के पश्चात् निम्नलिखित धारा अंतःस्थापित की जाएगी, अर्थात्:-
'१६४ए. बलात्कार की पीड़िता की चिकित्सीय परीक्षा।-(१) जहां, उस प्रक्रम के दौरान जब बलात्कार करने या बलात्कार करने के प्रयास का अपराध अन्वेषणाधीन है, उस स्त्री के शरीर की, जिसके साथ बलात्कार का अभिकथन किया गया है या बलात्कार करने का प्रयास किया गया है या प्रयास किया गया है, किसी चिकित्सीय विशेषज्ञ द्वारा जांच कराने का प्रस्ताव है, वहां ऐसी परीक्षा सरकार या स्थानीय प्राधिकारी द्वारा चलाए जा रहे अस्पताल में नियोजित किसी पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी द्वारा और ऐसे व्यवसायी की अनुपस्थिति में ऐसी स्त्री की या उसकी ओर से ऐसी सहमति देने के लिए सक्षम किसी व्यक्ति की सहमति से किसी अन्य पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी द्वारा की जाएगी और ऐसी स्त्री को ऐसे अपराध के किए जाने से संबंधित सूचना प्राप्त होने के समय से चौबीस घंटे के भीतर ऐसे पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी के पास भेजा जाएगा।
(2) पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी, जिसके पास ऐसी महिला भेजी जाती है, बिना विलंब के उसके शरीर की जांच करेगा और अपनी जांच की रिपोर्ट तैयार करेगा जिसमें निम्नलिखित विवरण दिए जाएंगे, अर्थात:-
(i) महिला का नाम और पता तथा उस व्यक्ति का नाम जिसके द्वारा उसे लाया गया था;
(ii) महिला की आयु;
(iii) डीएनए प्रोफाइलिंग के लिए महिला के शरीर से ली गई सामग्री का विवरण;
(iv) महिला के शरीर पर चोट के निशान, यदि कोई हों;
(v) महिला की सामान्य मानसिक स्थिति; और
(vi) अन्य महत्वपूर्ण विवरण उचित विस्तार में।
(3) रिपोर्ट में प्रत्येक निष्कर्ष के लिए स्पष्ट कारण बताए जाएंगे।
(4) रिपोर्ट में यह स्पष्ट रूप से दर्ज किया जाएगा कि ऐसी जांच के लिए महिला या उसकी ओर से सहमति देने में सक्षम व्यक्ति की सहमति प्राप्त कर ली गई है।
(5) परीक्षा के प्रारंभ और समापन का सही समय भी रिपोर्ट में अंकित किया जाएगा।
(6) पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी अविलंब रिपोर्ट को अन्वेषण अधिकारी को भेजेगा जो उसे धारा 173 में निर्दिष्ट मजिस्ट्रेट को उस धारा की उपधारा (5) के खंड (क) में निर्दिष्ट दस्तावेजों के भाग के रूप में भेजेगा।
(7) इस धारा की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह स्त्री की या उसकी ओर से ऐसी सहमति देने के लिए सक्षम किसी व्यक्ति की सहमति के बिना किसी परीक्षा को वैध बनाती है।
स्पष्टीकरण.-इस धारा के प्रयोजनों के लिए, "परीक्षा" और "पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी" का वही अर्थ होगा जो धारा 53 में है।'
18. मूल अधिनियम की धारा 176 का संशोधन.-
(i) उपधारा (1) में, "जहां कोई व्यक्ति पुलिस की हिरासत में रहते हुए मर जाता है या" शब्दों का लोप किया जाएगा;
(ii) उपधारा (1) के पश्चात् निम्नलिखित उपधारा अंतःस्थापित की जाएगी, अर्थात्:- "(1क) जहां,-
(क) किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है या वह गायब हो जाता है, या
(ख) किसी महिला के साथ बलात्कार किए जाने का आरोप है,
जब ऐसा व्यक्ति या महिला पुलिस की हिरासत में या मजिस्ट्रेट या न्यायालय द्वारा इस संहिता के अधीन प्राधिकृत किसी अन्य हिरासत में है, तो पुलिस द्वारा की गई जांच या अन्वेषण के अतिरिक्त, न्यायिक मजिस्ट्रेट या महानगर मजिस्ट्रेट, जैसा भी मामला हो, द्वारा जांच की जाएगी, जिसके स्थानीय क्षेत्राधिकार के भीतर अपराध किया गया है।";
(iii) उपधारा (4) के पश्चात्, स्पष्टीकरण के पूर्व निम्नलिखित उपधारा अंतःस्थापित की जाएगी, अर्थात्:-
"(5) न्यायिक मजिस्ट्रेट या महानगर मजिस्ट्रेट या कार्यपालक मजिस्ट्रेट या पुलिस अधिकारी, जैसा भी मामला हो, उप-धारा (1ए) के अधीन जांच या अन्वेषण कर रहा हो, किसी व्यक्ति की मृत्यु के चौबीस घंटे के भीतर शव को जांच के लिए निकटतम सिविल सर्जन या राज्य सरकार द्वारा इस निमित्त नियुक्त अन्य योग्य चिकित्सा व्यक्ति के पास भेजेगा, जब तक कि लिखित रूप में दर्ज किए जाने वाले कारणों से ऐसा करना संभव न हो।"
19. धारा 202 का संशोधन।-मूल अधिनियम की धारा 202 की उपधारा (1) में, "यदि वह ठीक समझे" शब्दों के पश्चात् निम्नलिखित अंतःस्थापित किया जाएगा, अर्थात्:-
"और उस मामले में जहां अभियुक्त उस क्षेत्र से बाहर किसी स्थान पर निवास कर रहा है जिसमें वह अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करता है,"।
20. धारा 206 का संशोधन.-मूल अधिनियम की धारा 206 की उपधारा (1) में,-
(क) प्रारंभिक पैराग्राफ में, "धारा 260 के अधीन" शब्दों और अंकों के पश्चात् "या धारा 261" शब्द और अंक अंत:स्थापित किए जाएंगे;
(ख) परंतुक में, "एक सौ रुपए" शब्दों के स्थान पर, "एक हजार रुपए" शब्द प्रतिस्थापित किए जाएंगे।
21. मूल अधिनियम की धारा 223 के परन्तुक में,-
(क) शब्द "मजिस्ट्रेट" के स्थान पर शब्द "मजिस्ट्रेट या सेशन न्यायालय" प्रतिस्थापित किए जाएंगे;
(ख) "यदि उसका समाधान हो जाए" शब्दों के स्थान पर "यदि उसका समाधान हो जाए" शब्द प्रतिस्थापित किए जाएंगे।
22. धारा 228 का संशोधन।-मूल अधिनियम की धारा 228 की उपधारा (1) के खण्ड (क) में, "और तत्पश्चात मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट" शब्दों के स्थान पर, "या किसी अन्य प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट को, तथा अभियुक्त को, यथास्थिति, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष, ऐसी तारीख को, जिसे वह ठीक समझे, उपस्थित होने का निर्देश देगा, और तत्पश्चात ऐसा मजिस्ट्रेट" शब्द प्रतिस्थापित किए जाएंगे।
23. धारा 260 का संशोधन.-मूल अधिनियम की धारा 260 की उपधारा (1) में,-
(क) "दो सौ रुपए" शब्दों के स्थान पर, जहां कहीं वे आते हैं, "दो हजार रुपए" शब्द प्रतिस्थापित किए जाएंगे;
(ख) खंड (छह) में, "आपराधिक धमकी" शब्दों के स्थान पर, "आपराधिक धमकी जिसके लिए दो वर्ष तक का कारावास या जुर्माना या दोनों हो सकता है" शब्द प्रतिस्थापित किए जाएंगे।
24. नई धारा 291-क का अंतःस्थापन.-मूल अधिनियम की धारा 291 के पश्चात् निम्नलिखित धारा अंतःस्थापित की जाएगी, अर्थात्:-
"291ए. मजिस्ट्रेट की पहचान रिपोर्ट।-(1) कोई दस्तावेज, जो किसी व्यक्ति या संपत्ति के संबंध में कार्यपालक मजिस्ट्रेट के हस्ताक्षर सहित पहचान रिपोर्ट होने का तात्पर्य रखता है, इस संहिता के अधीन किसी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही में साक्ष्य के रूप में उपयोग किया जा सकेगा, भले ही ऐसे मजिस्ट्रेट को साक्षी के रूप में नहीं बुलाया गया हो:
परन्तु जहां ऐसी रिपोर्ट में किसी संदिग्ध व्यक्ति या साक्षी का कथन अन्तर्विष्ट है, जिस पर भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (1872 का 1) की, यथास्थिति, धारा 21, धारा 32, धारा 33, धारा 155 या धारा 157 के उपबन्ध लागू होते हैं, वहां ऐसा कथन इस उपधारा के अधीन उन धाराओं के उपबन्धों के अनुसार ही उपयोग में लाया जाएगा, अन्यथा नहीं।
(2) न्यायालय, यदि वह ठीक समझे, अभियोजन पक्ष या अभियुक्त के आवेदन पर, उक्त रिपोर्ट की विषय-वस्तु के संबंध में ऐसे मजिस्ट्रेट को समन कर सकेगा और उसकी परीक्षा कर सकेगा।"
25. मूल अधिनियम की धारा 292 का संशोधन।--
(क) उपधारा (1) में, "टकसाल" शब्दों के पश्चात् "या करेंसी नोट प्रेस या बैंक नोट प्रेस या प्रतिभूति मुद्रण प्रेस" शब्द अंत:स्थापित किए जाएंगे;
(ख) उपधारा (3) में, "टकसाल या भारत सुरक्षा मुद्रणालय के मास्टर" शब्दों के स्थान पर, "टकसाल या करेंसी नोट मुद्रणालय या बैंक नोट मुद्रणालय या सुरक्षा मुद्रणालय या भारत सुरक्षा मुद्रणालय के महाप्रबंधक" शब्द रखे जाएंगे।
26. धारा 293 का संशोधन.-मूल अधिनियम की धारा 293 की उपधारा (4) में,-
(क) खंड (ख) के स्थान पर निम्नलिखित खंड प्रतिस्थापित किया जाएगा, अर्थात्:-
"(ख) विस्फोटकों का मुख्य नियंत्रक;";
(ख) खंड (च) के पश्चात् निम्नलिखित खंड जोड़ा जाएगा, अर्थात्:-
(छ) कोई अन्य सरकारी वैज्ञानिक विशेषज्ञ, जिसे केन्द्रीय सरकार द्वारा इस प्रयोजन के लिए अधिसूचना द्वारा निर्दिष्ट किया गया हो।
27. नई धारा 311ए का अंतःस्थापन.-मूल अधिनियम की धारा 311 के पश्चात् निम्नलिखित धारा अंतःस्थापित की जाएगी, अर्थात्:-
"311ए. किसी व्यक्ति को नमूना हस्ताक्षर या हस्तलेख देने का आदेश देने की मजिस्ट्रेट की शक्ति।-यदि प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट का यह समाधान हो जाता है कि,
इस संहिता के अधीन किसी अन्वेषण या कार्यवाही के संबंध में, किसी व्यक्ति को, जिसके अंतर्गत अभियुक्त व्यक्ति भी है, नमूना हस्ताक्षर या हस्तलेख देने का निर्देश देना समीचीन है, वहां वह उस आशय का आदेश दे सकेगा और उस स्थिति में वह व्यक्ति, जिससे आदेश संबंधित है, ऐसे आदेश में विनिर्दिष्ट समय और स्थान पर पेश किया जाएगा या उपस्थित होगा तथा अपने नमूना हस्ताक्षर या हस्तलेख देगा:
परन्तु इस धारा के अधीन कोई आदेश तब तक नहीं किया जाएगा जब तक कि व्यक्ति को किसी समय ऐसी जांच या कार्यवाही के संबंध में गिरफ्तार न कर लिया गया हो।"
28. धारा 320 का संशोधन.-मूल अधिनियम की धारा 320 की उपधारा (2) के अधीन सारणी में,-
(क) स्तंभ 1 में "खतरनाक हथियारों या साधनों द्वारा स्वेच्छा से चोट पहुंचाना" शब्दों और स्तंभ 2 और 3 में उससे संबंधित प्रविष्टियों का लोप किया जाएगा;
(ख) स्तंभ 3 में, धारा 325 से संबंधित प्रविष्टि के सामने, "डिट्टो" शब्द के स्थान पर, "वह व्यक्ति जिसे क्षति पहुंचाई गई है" शब्द प्रतिस्थापित किए जाएंगे;
(ग) स्तंभ 1 में, जहां कहीं भी "दो सौ पचास रुपए" शब्द आते हैं, उनके स्थान पर "दो हजार रुपए" शब्द रखे जाएंगे।
29. धारा 356 का संशोधन.-मूल अधिनियम की धारा 356 की उपधारा (1) में,-
(क) "या धारा 489डी" शब्दों, अंकों और अक्षर के पश्चात्, "या धारा 506 (जहां तक यह आपराधिक धमकी से संबंधित है, जो सात वर्ष तक की अवधि के कारावास या जुर्माने या दोनों से दंडनीय है)" शब्द, अंक और कोष्ठक अंत:स्थापित किए जाएंगे;
(ख) "अध्याय XII" शब्दों और अंकों के पश्चात् "या अध्याय XVI" शब्द और अंक अंत:स्थापित किए जाएंगे।
30. धारा 358 का संशोधन.-मूल अधिनियम की धारा 358 की उपधारा (1) और (2) में, "एक सौ रुपए" शब्दों के स्थान पर, "एक हजार रुपए" शब्द प्रतिस्थापित किए जाएंगे।
31. मूल अधिनियम की धारा 377 में,-
(क) उपधारा (1) और (2) में, "दण्डादेश की अपर्याप्तता के आधार पर उसके विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील" शब्दों के स्थान पर निम्नलिखित प्रतिस्थापित किया जाएगा, अर्थात्:-
"दण्ड के विरुद्ध उसकी अपर्याप्तता के आधार पर अपील-
(क) यदि दंडादेश मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किया गया हो तो सत्र न्यायालय में; तथा
(ख) यदि दण्डादेश किसी अन्य न्यायालय द्वारा पारित किया गया हो तो उच्च न्यायालय को;
(ख) उपधारा (3) में, "उच्च न्यायालय" शब्दों के स्थान पर, "यथास्थिति, सेशन न्यायालय या उच्च न्यायालय" शब्द रखे जाएंगे।
32. मूल अधिनियम की धारा 378 में,-
(i) उपधारा (1) के स्थान पर निम्नलिखित उपधारा प्रतिस्थापित की जाएगी, अर्थात्:-
"(1) उपधारा (2) में अन्यथा उपबंधित के सिवाय, तथा उपधारा (3) और (5) के उपबंधों के अधीन रहते हुए,-
(क) जिला मजिस्ट्रेट किसी भी मामले में लोक अभियोजक को निर्देश दे सकता है कि वह किसी संज्ञेय और अजमानतीय अपराध के संबंध में मजिस्ट्रेट द्वारा पारित दोषमुक्ति के आदेश के विरुद्ध सत्र न्यायालय में अपील प्रस्तुत करे;
(ख) राज्य सरकार, किसी भी मामले में, लोक अभियोजक को उच्च न्यायालय से भिन्न किसी न्यायालय द्वारा पारित दोषमुक्ति के मूल या अपीलीय आदेश [जो खंड (क) के अधीन आदेश नहीं है] या पुनरीक्षण सत्र न्यायालय द्वारा पारित दोषमुक्ति के आदेश के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील प्रस्तुत करने का निर्देश दे सकेगी।"
(ii) उपधारा (2) में, "केन्द्रीय सरकार" शब्दों से प्रारम्भ होने वाले और "बरी करने के आदेश" शब्दों पर समाप्त होने वाले भाग के स्थान पर निम्नलिखित प्रतिस्थापित किया जाएगा, अर्थात्:-
"केंद्रीय सरकार उपधारा (3) के उपबंधों के अधीन रहते हुए लोक अभियोजक को यह भी निर्देश दे सकेगी कि वह निम्नलिखित के विरुद्ध अपील प्रस्तुत करे-
(क) किसी संज्ञेय और अजमानतीय अपराध के संबंध में मजिस्ट्रेट द्वारा पारित दोषमुक्ति आदेश के विरुद्ध सत्र न्यायालय में;
(ख) उच्च न्यायालय से भिन्न किसी न्यायालय द्वारा पारित दोषमुक्ति के मूल या अपीलीय आदेश [जो खंड (क) के अधीन आदेश नहीं है] या पुनरीक्षण सत्र न्यायालय द्वारा पारित दोषमुक्ति के आदेश से उच्च न्यायालय को";
(iii) उपधारा (3) में, "कोई अपील नहीं" शब्दों के स्थान पर, "उच्च न्यायालय में कोई अपील नहीं" शब्द प्रतिस्थापित किए जाएंगे।
33. धारा 389 का संशोधन.-मूल अधिनियम की धारा 389 की उपधारा (1) में निम्नलिखित परन्तुक जोड़े जाएंगे, अर्थात्:-
"परन्तु अपीलीय न्यायालय, किसी ऐसे सिद्धदोष व्यक्ति को, जो मृत्यु दण्ड या आजीवन कारावास या कम से कम दस वर्ष की अवधि के कारावास से दण्डनीय किसी अपराध के लिए सिद्धदोष ठहराया गया हो, जमानत पर या उसके स्वयं के बंधपत्र पर रिहा करने से पूर्व, लोक अभियोजक को ऐसी रिहाई के विरुद्ध लिखित में कारण बताने का अवसर देगा:
आगे यह भी प्रावधान है कि ऐसे मामलों में जहां किसी सिद्धदोष व्यक्ति को जमानत पर रिहा किया जाता है, वहां लोक अभियोजक को जमानत रद्द करने के लिए आवेदन दायर करने की स्वतंत्रता होगी।"
34. मूल अधिनियम की धारा 428 में निम्नलिखित परन्तुक जोड़ा जाएगा, अर्थात्:-
"परन्तु धारा 433क में निर्दिष्ट मामलों में, निरोध की ऐसी अवधि उस धारा में निर्दिष्ट चौदह वर्ष की अवधि में से काट ली जाएगी।"
35. धारा 436 का संशोधन.-मूल अधिनियम की धारा 436 की उपधारा (1) में,-
(क) प्रथम परन्तुक में, "जमानत लेने के स्थान पर" शब्दों के स्थान पर, "यदि ऐसा व्यक्ति निर्धन है और जमानत देने में असमर्थ है तो जमानत लेने के स्थान पर ऐसा कर सकता है और करेगा" शब्द प्रतिस्थापित किए जाएंगे;
(ख) प्रथम परन्तुक के पश्चात् निम्नलिखित स्पष्टीकरण अंतःस्थापित किया जाएगा, अर्थात्:-
स्पष्टीकरण- जहां कोई व्यक्ति अपनी गिरफ्तारी की तारीख से एक सप्ताह के भीतर जमानत देने में असमर्थ है, वहां अधिकारी या न्यायालय के लिए यह मान लेना पर्याप्त आधार होगा कि वह इस परंतुक के प्रयोजनों के लिए एक निर्धन व्यक्ति है।
36. नई धारा 436क का अंतःस्थापन.-मूल अधिनियम की धारा 436 के पश्चात् निम्नलिखित धारा अंतःस्थापित की जाएगी, अर्थात्:-
"436ए. वह अधिकतम अवधि जिसके लिए किसी विचाराधीन कैदी को निरुद्ध रखा जा सकता है।- जहां कोई व्यक्ति किसी विधि के अधीन किसी अपराध के अन्वेषण, जांच या विचारण की अवधि के दौरान (जो ऐसा अपराध नहीं है जिसके लिए उस विधि के अधीन दण्डों में से एक दण्ड के रूप में मृत्यु दण्ड विनिर्दिष्ट किया गया है) उस विधि के अधीन उस अपराध के लिए विनिर्दिष्ट कारावास की अधिकतम अवधि के आधे तक की अवधि के लिए निरुद्ध रहा है, वहां उसे न्यायालय द्वारा उसके निजी बंधपत्र पर, प्रतिभुओं सहित या रहित, रिहा कर दिया जाएगा:
परंतु न्यायालय, लोक अभियोजक को सुनने के पश्चात् तथा उसके द्वारा लिखित में अभिलिखित किए जाने वाले कारणों से, ऐसे व्यक्ति को उक्त अवधि के आधे से अधिक अवधि के लिए निरंतर निरुद्ध रखने का आदेश दे सकेगा या उसे प्रतिभूओं सहित या रहित, व्यक्तिगत बंधपत्र के स्थान पर जमानत पर रिहा कर सकेगा:
आगे यह भी प्रावधान है कि किसी भी मामले में ऐसे व्यक्ति को अन्वेषण, जांच या विचारण की अवधि के दौरान उस कानून के तहत उक्त अपराध के लिए उपबंधित कारावास की अधिकतम अवधि से अधिक के लिए निरुद्ध नहीं किया जाएगा।
स्पष्टीकरण.-जमानत मंजूर करने के लिए इस धारा के अधीन निरोध की अवधि की संगणना करते समय, अभियुक्त द्वारा कार्यवाही में किए गए विलम्ब के कारण बीती निरोध की अवधि को अपवर्जित कर दिया जाएगा।
37. मूल अधिनियम की धारा 437 में,-
(i) उपधारा (1) में,-
(क) खंड (ii) में, "गैर-जमानती और संज्ञेय अपराध" शब्दों के स्थान पर, "तीन वर्ष या उससे अधिक किन्तु सात वर्ष से अन्यून कारावास से दंडनीय संज्ञेय अपराध" शब्द प्रतिस्थापित किए जाएंगे;
(ख) तीसरे परन्तुक के पश्चात् निम्नलिखित परन्तुक अंतःस्थापित किया जाएगा, अर्थात्:-
"यह भी प्रावधान है कि यदि किसी व्यक्ति द्वारा किया गया कथित अपराध मृत्युदंड, आजीवन कारावास या सात वर्ष या उससे अधिक के कारावास से दंडनीय है तो उसे इस उपधारा के अधीन न्यायालय द्वारा लोक अभियोजक को सुनवाई का अवसर दिए बिना जमानत पर रिहा नहीं किया जाएगा।"
(ii) उपधारा (3) में, "न्यायालय द्वारा अधिरोपित किया जा सकेगा" शब्दों से प्रारम्भ होने वाले और "न्याय के हितों" शब्दों पर समाप्त होने वाले भाग के स्थान पर निम्नलिखित प्रतिस्थापित किया जाएगा, अर्थात्:-
"न्यायालय निम्नलिखित शर्तें लागू करेगा,-
(क) ऐसा व्यक्ति इस अध्याय के अधीन निष्पादित बांड की शर्तों के अनुसार उपस्थित होगा,
(ख) ऐसा व्यक्ति उस अपराध के समान कोई अपराध नहीं करेगा जिसका उस पर आरोप है, या जिसके करने का उस पर संदेह है, तथा
(ग) ऐसा व्यक्ति मामले के तथ्यों से परिचित किसी व्यक्ति को प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः कोई प्रलोभन, धमकी या वादा नहीं करेगा जिससे वह ऐसे तथ्यों को न्यायालय या किसी पुलिस अधिकारी के समक्ष प्रकट करने से विमुख हो जाए या साक्ष्य के साथ छेड़छाड़ कर सके,
और न्याय के हित में, ऐसी अन्य शर्तें भी लगा सकता है जिन्हें वह आवश्यक समझे।"
38. धारा 438 का संशोधन.-मूल अधिनियम की धारा 438 की उपधारा (1) के स्थान पर निम्नलिखित उपधाराएं प्रतिस्थापित की जाएंगी, अर्थात्:-
"(1) जहां किसी व्यक्ति को यह विश्वास करने का कारण है कि उसे अजमानतीय अपराध करने के आरोप में गिरफ्तार किया जा सकता है, वह इस धारा के अधीन निर्देश के लिए उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय में आवेदन कर सकता है कि ऐसी गिरफ्तारी की दशा में उसे जमानत पर रिहा कर दिया जाए; और वह न्यायालय, अन्य बातों के साथ-साथ, निम्नलिखित बातों पर विचार करने के पश्चात्, ऐसा कर सकता है, अर्थात:-
(i) आरोप की प्रकृति और गंभीरता;
(ii) आवेदक का पूर्ववृत्त, जिसमें यह तथ्य भी शामिल है कि क्या उसने पहले किसी संज्ञेय अपराध के संबंध में न्यायालय द्वारा दोषसिद्धि पर कारावास भोगा है;
(iii) आवेदक के न्याय से भागने की संभावना; और
(iv) जहां आरोप आवेदक को गिरफ्तार करके उसे क्षति पहुंचाने या अपमानित करने के उद्देश्य से लगाया गया हो,
या तो आवेदन को तत्काल खारिज कर दें या अग्रिम जमानत देने के लिए अंतरिम आदेश जारी करें:
परंतु जहां, यथास्थिति, उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय ने इस उपधारा के अधीन कोई अंतरिम आदेश पारित नहीं किया है या अग्रिम जमानत मंजूर करने के लिए आवेदन को अस्वीकृत कर दिया है, वहां पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी ऐसे आवेदन में लगाए गए आरोप के आधार पर आवेदक को बिना वारंट के गिरफ्तार करने के लिए स्वतंत्र होगा।
(1क) जहां न्यायालय उपधारा (1) के अधीन अंतरिम आदेश देता है, वहां वह लोक अभियोजक और पुलिस अधीक्षक को कम से कम सात दिन की सूचना के साथ ऐसे आदेश की एक प्रति तुरन्त तामील कराएगा, ताकि न्यायालय द्वारा आवेदन पर अंतिम रूप से सुनवाई किए जाने के समय लोक अभियोजक को सुनवाई का उचित अवसर दिया जा सके।
(1बी) अग्रिम जमानत चाहने वाले आवेदक की उपस्थिति आवेदन की अंतिम सुनवाई और न्यायालय द्वारा अंतिम आदेश पारित करने के समय अनिवार्य होगी, यदि लोक अभियोजक द्वारा किए गए आवेदन पर न्यायालय न्याय के हित में ऐसी उपस्थिति को आवश्यक समझता है।"
39. नई धारा 441क का अंतःस्थापन.-मूल अधिनियम की धारा 441 के पश्चात् निम्नलिखित धारा अंतःस्थापित की जाएगी, अर्थात्:-
"441ए. जमानतदारों द्वारा घोषणा.--किसी अभियुक्त व्यक्ति की जमानत पर रिहाई के लिए उसका जमानतदार होने वाला प्रत्येक व्यक्ति न्यायालय के समक्ष उन व्यक्तियों की संख्या के बारे में घोषणा करेगा जिनके प्रति वह जमानतदार है, जिसमें अभियुक्त भी शामिल है, तथा उसमें सभी सुसंगत विवरण देगा।"
40. धारा 446 का संशोधन.-मूल अधिनियम की धारा 446 की उपधारा (3) में, "अपने विवेकानुसार" शब्दों के स्थान पर, "ऐसा करने के अपने कारणों को अभिलिखित करने के पश्चात्" शब्द प्रतिस्थापित किए जाएंगे।
41. मूल अधिनियम की धारा 459 में, "दस रुपए से कम" शब्दों के स्थान पर, "पांच सौ रुपए से कम" शब्द प्रतिस्थापित किए जाएंगे।
42. प्रथम अनुसूची का संशोधन.-मूल अधिनियम की प्रथम अनुसूची में, शीर्षक "I.-भारतीय दंड संहिता के अधीन अपराध" के अंतर्गत,-
(क) धारा 153ए से संबंधित प्रविष्टियों के पश्चात् निम्नलिखित प्रविष्टियां अंतःस्थापित की जाएंगी, अर्थात्:-
123456 123456
"153AA जानबूझकर कारावास मजिस्ट्रेट ले जाना।"
किसी भी जुलूस में हथियार लेकर भाग लेने या किसी सामूहिक अभ्यास या सामूहिक प्रशिक्षण का आयोजन या आयोजन करने पर 6 महीने का जुर्माना और 2,000 रुपए का जुर्माना
ठीक इसी प्रकार से
डिट्टो एनी
हथियारों के साथ ______________________________________________________________ __________________
(ख) छठे कॉलम में, धारा 153ख से संबंधित प्रविष्टियों में, "डिट्टो" शब्द के स्थान पर, "प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट" शब्द रखे जाएंगे;
(ग) धारा 174 से संबंधित प्रविष्टियों के पश्चात् निम्नलिखित प्रविष्टियां अंतःस्थापित की जाएंगी, अर्थात्:-
123456 ______________________________________________________________ ________________
"174ए विशेष मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित न होना - कारावास - गैर जमानती कारावास - गैर जमानती
निर्दिष्ट स्थान पर 3 वर्ष के लिए निर्दिष्ट किया गया है, समय एक प्रावधान द्वारा अपेक्षित अनुसार या जुर्माने के साथ,
कक्षा।
के तहत प्रकाशित क्लेमेशन
पहला
इस संहिता की धारा 82 की उपधारा (1)
ऐसे मामले में जहां घोषणा
इस संहिता की धारा 82 की उपधारा (4) के अधीन किसी व्यक्ति को उद्घोषित अपराधी घोषित करने का प्रावधान है।
कारावास 7 वर्ष के लिए
ठीक वैसा ही।"
या दोनों के साथ
__________________________________________________________________ __________________
(घ) धारा 175 से संबंधित प्रविष्टियों में,-
(i) चौथे कॉलम में, शब्द "डिट्टो" के स्थान पर शब्द "गैर-संज्ञेय" रखा जाएगा;
(ii) पांचवें कॉलम में, शब्द "डिट्टो" के स्थान पर शब्द "जमानती" प्रतिस्थापित किया जाएगा;
(ई) धारा 229 से संबंधित प्रविष्टियों के पश्चात निम्नलिखित प्रविष्टियां अंतःस्थापित की जाएंगी, अर्थात्:-
123456 ______________________________________________________________ ________________
"229ए किसी व्यक्ति द्वारा जमानत न देना - संज्ञान के लिए कारावास - गैर जमानत - कोई भी
एक वर्ष तक की जमानत या बांड, या जुर्माना, सक्षम मजिस्ट्रेट द्वारा।
न्यायालय में उपस्थित होना या दोनों
__________________________________________________________________ __________________
(च) पांचवें कॉलम में, निम्नलिखित से संबंधित प्रविष्टियों में-
(i) धारा 274 में, शब्द "डिट्टो" के स्थान पर शब्द "गैर-जमानती" प्रतिस्थापित किया जाएगा;
(ii) धारा 275 में, शब्द "डिट्टो" के स्थान पर शब्द "जमानतीय" प्रतिस्थापित किया जाएगा;
(iii) धारा 324 में, "डिट्टो" शब्द के स्थान पर "गैर-जमानती" शब्द प्रतिस्थापित किया जाएगा;
(iv) धारा 325 में, शब्द "डिट्टो" के स्थान पर "जमानतीय" शब्द रखा जाएगा; (v) धारा 332 में, शब्द "जमानतीय" के स्थान पर "डिट्टो" शब्द रखा जाएगा;
(vi) धारा 333 में, "गैर-जमानती" शब्द के स्थान पर "डिट्टो" शब्द प्रतिस्थापित किया जाएगा;
(vii) धारा 353 में, शब्द "डिट्टो" के स्थान पर शब्द "गैर-जमानती" प्रतिस्थापित किया जाएगा;
(viii) धारा 354 में शब्द "डिट्टो" के स्थान पर शब्द "जमानतीय" प्रतिस्थापित किया जाएगा।
43. द्वितीय अनुसूची का संशोधन.-मूल अधिनियम की द्वितीय अनुसूची में, प्ररूप संख्या 45 में, "धारा 436 देखिए" शब्दों और अंकों के पश्चात् "436क" अंक और अक्षर अंत:स्थापित किए जाएंगे।
44. 1860 के अधिनियम 45 का संशोधन।-भारतीय दंड संहिता में,-
(क) धारा 153क के पश्चात् निम्नलिखित धारा अंतःस्थापित की जाएगी, अर्थात्:-
'153AA. जानबूझकर किसी जुलूस में हथियार ले जाने या हथियारों के साथ किसी सामूहिक ड्रिल या सामूहिक प्रशिक्षण का आयोजन, आयोजन या भाग लेने के लिए दंड।- जो कोई भी दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) की धारा 144 ए के तहत जारी या किए गए किसी भी सार्वजनिक नोटिस या आदेश के उल्लंघन में जानबूझकर किसी भी जुलूस में हथियार ले जाता है या किसी भी सार्वजनिक स्थान में हथियारों के साथ किसी भी सामूहिक ड्रिल या सामूहिक प्रशिक्षण का आयोजन, आयोजन या भाग लेता है, उसे दंडित किया जाएगा।
छह माह तक के कारावास और दो हजार रुपए तक के जुर्माने से दण्डित किया जा सकता है।
स्पष्टीकरण.- "आयुध" से किसी भी प्रकार की ऐसी वस्तु अभिप्रेत है जो आक्रमण या बचाव के लिए हथियार के रूप में डिजाइन या अनुकूलित की गई हो और इसमें आग्नेयास्त्र, तेज धार वाले हथियार, लाठियां, डंडे और छड़ियां शामिल हैं।'
(ख) धारा 174 के पश्चात् निम्नलिखित धारा अंतःस्थापित की जाएगी, अर्थात्:-
"174ए. 1974 के अधिनियम 2 की धारा 82 के अधीन उद्घोषणा के प्रत्युत्तर में गैर-उपस्थिति.- जो कोई दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 82 की उपधारा (1) के अधीन प्रकाशित उद्घोषणा द्वारा अपेक्षित विनिर्दिष्ट स्थान और विनिर्दिष्ट समय पर उपस्थित होने में असफल रहता है, उसे कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी या जुर्माने से, या दोनों से, दंडित किया जाएगा और जहां उस धारा की उपधारा (4) के अधीन उसे उद्घोषित अपराधी घोषित करने की घोषणा की गई है, वहां उसे कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी, दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा।";
(ग) धारा 229 के पश्चात् निम्नलिखित धारा अंतःस्थापित की जाएगी, अर्थात्:-
"229ए. जमानत या बांड पर छोड़े गए व्यक्ति द्वारा न्यायालय में उपस्थित होने में विफलता। जो कोई, किसी अपराध का आरोप लगाए जाने पर और जमानत पर या बिना प्रतिभुओं के बांड पर रिहा किए जाने पर, पर्याप्त कारण के बिना (जिसे साबित करने का भार उसी पर होगा) जमानत या बांड की शर्तों के अनुसार न्यायालय में उपस्थित होने में विफल रहता है, उसे किसी एक अवधि के लिए कारावास से, जिसे एक वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, या जुर्माने से, या दोनों से, दंडित किया जाएगा।
स्पष्टीकरण.- इस धारा के अंतर्गत दण्ड इस प्रकार है-
(क) उस दण्ड के अतिरिक्त जो अपराधी उस अपराध के लिए दोषसिद्धि पर भुगतना होगा जिसका उस पर आरोप लगाया गया है; तथा
(ख) बंधपत्र को जब्त करने का आदेश देने की न्यायालय की शक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना।"
टीके विश्वनाथन, सचिव, भारत सरकार।