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झूठे यौन उत्पीड़न के मामले महिला सशक्तिकरण के उद्देश्य को बाधित करते हैं

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दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल ही में यौन उत्पीड़न के झूठे मामलों तथा यौन उत्पीड़न के मामलों की तुरन्त रिपोर्ट करने के तरीके पर अपनी नाराजगी व्यक्त की तथा कहा कि इससे महिला सशक्तिकरण में बाधा उत्पन्न होती है।

न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई कर रहे थे, जिसमें उनके पड़ोसी द्वारा भारतीय दंड संहिता के तहत यौन उत्पीड़न और आपराधिक धमकी के लिए दर्ज कराई गई प्राथमिकी (एफआईआर) को रद्द करने की मांग की गई थी।

याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि वह और उसका परिवार शहर से बाहर थे। उनके पड़ोसी ने छत पर उनके फ्लैट के लिए बनाई गई पानी की टंकी को तोड़ दिया। पड़ोसियों ने एक कमरा और शौचालय भी बना लिया और याचिकाकर्ता के फ्लैट में पानी की आपूर्ति के लिए इस्तेमाल की जाने वाली पाइप को तोड़ दिया। याचिकाकर्ता ने अवैध निर्माण के बारे में दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) और दिल्ली पुलिस से कई शिकायतें कीं। हालांकि, पड़ोसियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई क्योंकि पड़ोसी की बहू पुलिस में कांस्टेबल थी।

कोर्ट को बताया गया कि फरवरी 2021 में पुलिस ने याचिकाकर्ता की लिखित शिकायत के बाद पड़ोसियों को थाने बुलाया था। लेकिन उन्होंने मामले को सुलझाने से इनकार कर दिया। इसके बाद पड़ोसियों ने याचिकाकर्ता और उसकी पत्नी के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई। उन्होंने आरोप लगाया कि पुलिस ने मामले को निपटाने के लिए उनसे 5 लाख रुपये की रिश्वत मांगी।

बेंच ने पाया कि एफआईआर की विषय-वस्तु अस्पष्ट थी और इसमें कथित अपराधों के बारे में विशेष जानकारी का अभाव था। कोर्ट ने आगे कहा कि मामले को विस्तार से पढ़ने पर पता चला कि एफआईआर केवल याचिकाकर्ता और उसकी पत्नी को पड़ोसियों के खिलाफ दर्ज की गई शिकायतों को वापस लेने के लिए मजबूर करने के लिए दर्ज की गई थी।

इसलिए न्यायालय ने एफआईआर रद्द कर दी।


लेखक: पपीहा घोषाल