नंगे कृत्य
दंड प्रक्रिया संहिता, 1973
353. निर्णय। (1) आरंभिक अधिकारिता वाले किसी दंड न्यायालय में प्रत्येक विचारण में निर्णय, विचारण की समाप्ति के तुरंत पश्चात् या किसी पश्चात्वर्ती समय पर, जिसकी सूचना पक्षकारों या उनके अधिवक्ताओं को दी जाएगी, पीठासीन अधिकारी द्वारा खुले न्यायालय में सुनाया जाएगा,- (क) संपूर्ण निर्णय सुनाकर; या
(ख) सम्पूर्ण निर्णय पढ़कर; या
(ग) निर्णय के प्रभावी भाग को पढ़कर तथा निर्णय के सार को ऐसी भाषा में समझाकर, जिसे अभियुक्त या उसका वकील समझ सके।
(2) जहां निर्णय उपधारा (1) के खंड (क) के अधीन सुनाया जाता है, वहां पीठासीन अधिकारी उसे आशुलिपि में लिखवाएगा, प्रतिलिपि और उसके तैयार होते ही उसके प्रत्येक पृष्ठ पर हस्ताक्षर करेगा और उस पर खुले न्यायालय में निर्णय सुनाए जाने की तारीख लिखेगा।
(3) जहां निर्णय या उसका प्रभावी भाग, यथास्थिति, उपधारा (1) के खंड (ख) या खंड (ग) के अधीन पढ़ा जाता है, वहां पीठासीन अधिकारी द्वारा खुले न्यायालय में उस पर तारीख डाली जाएगी और हस्ताक्षर किए जाएंगे और यदि वह उसके अपने हाथ से नहीं लिखा गया है तो निर्णय के प्रत्येक पृष्ठ पर उसके हस्ताक्षर होंगे।
(4) जहां निर्णय उपधारा (1) के खंड (ग) में विनिर्दिष्ट रीति से सुनाया जाता है, वहां संपूर्ण निर्णय या उसकी एक प्रति पक्षकारों या उनके वकीलों को अवलोकनार्थ तत्काल निःशुल्क उपलब्ध कराई जाएगी।
(5) यदि अभियुक्त हिरासत में है तो उसे निर्णय सुनने के लिए लाया जाएगा।
(6) यदि अभियुक्त हिरासत में नहीं है, तो न्यायालय द्वारा उससे यह अपेक्षा की जाएगी कि वह सुनाए गए निर्णय को सुनने के लिए उपस्थित हो, सिवाय उस स्थिति के जब विचारण के दौरान उसकी व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट दे दी गई हो और दण्डादेश केवल जुर्माने का हो या वह दोषमुक्त कर दिया गया हो :
परन्तु जहां एक से अधिक अभियुक्त हों और उनमें से एक या अधिक अभियुक्त उस तारीख को न्यायालय में उपस्थित न हों, जिस तारीख को निर्णय सुनाया जाना हो, वहां पीठासीन अधिकारी मामले के निपटारे में अनुचित विलम्ब से बचने के लिए उनकी अनुपस्थिति में भी निर्णय सुना सकेगा।
(7) किसी दंड न्यायालय द्वारा दिया गया कोई निर्णय केवल इस कारण अविधिमान्य नहीं समझा जाएगा कि उसके सुनाए जाने के लिए अधिसूचित दिन या स्थान पर कोई पक्षकार या उसका वकील अनुपस्थित था, अथवा पक्षकारों या उनके वकीलों या उनमें से किसी को ऐसे दिन और स्थान की सूचना तामील करने में कोई चूक हुई थी, या तामील करने में कोई त्रुटि हुई थी।
(8) इस धारा की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह धारा 465 के उपबंधों की सीमा को किसी भी प्रकार सीमित करती है।
354. निर्णय की भाषा और विषय-वस्तु।
354. निर्णय की भाषा और अंतर्वस्तु। (1) इस संहिता द्वारा अन्यथा स्पष्ट रूप से उपबंधित के सिवाय, धारा 353 में निर्दिष्ट प्रत्येक निर्णय,-
(क) न्यायालय की भाषा में लिखा जाएगा;
(ख) इसमें निर्धारण हेतु प्रश्न या प्रश्न, उन पर निर्णय तथा निर्णय के कारण अंतर्विष्ट होंगे;
(ग) वह अपराध (यदि कोई हो) विनिर्दिष्ट करेगा जिसके लिए अभियुक्त को दोषसिद्ध किया गया है तथा भारतीय दण्ड संहिता (१८६० का ४५) या अन्य विधि की वह धारा तथा वह दण्ड विनिर्दिष्ट करेगा जिससे उसे दण्डादेशित किया गया है;
(घ) यदि यह दोषमुक्ति का निर्णय है, तो इसमें यह बताया जाएगा कि
जिस अपराध से अभियुक्त को दोषमुक्त किया जाता है, तथा निर्देश दिया जाता है कि उसे स्वतंत्र कर दिया जाए।
(2) जब दोषसिद्धि भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) के अधीन है और यह संदेह है कि अपराध उस संहिता की दो धाराओं में से किस के अंतर्गत आता है, या एक ही धारा के दो भागों में से किस के अंतर्गत आता है, तो न्यायालय उसे सुस्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करेगा और अनुकल्पत: निर्णय पारित करेगा।
(3) जब दोषसिद्धि मृत्यु दण्ड या, इसके विकल्प में, आजीवन कारावास या कुछ वर्षों के कारावास से दण्डनीय अपराध के लिए हो, तो निर्णय में दिए गए दण्ड के कारणों का और मृत्यु दण्ड की दशा में ऐसे दण्ड के लिए विशेष कारणों का कथन किया जाएगा।
(4) जब दोषसिद्धि एक वर्ष या उससे अधिक की अवधि के कारावास से दण्डनीय अपराध के लिए है, किन्तु न्यायालय तीन मास से कम की अवधि के कारावास का दण्डादेश अधिरोपित करता है, तब वह ऐसा दण्ड देने के अपने कारणों को लेखबद्ध करेगा, जब तक कि दण्डादेश न्यायालय के उठने तक कारावास का न हो या जब तक कि मामले का इस संहिता के उपबन्धों के अधीन संक्षिप्त विचारण न किया गया हो।
(5) जब किसी व्यक्ति को मृत्यु दण्ड दिया जाता है तो दण्ड में यह निर्देश दिया जाएगा कि उसे तब तक गर्दन से लटका कर लटकाया जाए जब तक उसकी मृत्यु न हो जाए।
(6) धारा 117 या धारा 138 की उपधारा (2) के अधीन प्रत्येक आदेश तथा धारा 125, धारा 145 या धारा 147 के अधीन किए गए प्रत्येक अंतिम आदेश में अवधारण के लिए प्रश्न या प्रश्न, उन पर निर्णय तथा निर्णय के कारण अंतर्विष्ट होंगे।
355. महानगर मजिस्ट्रेट का निर्णय।
355. महानगर मजिस्ट्रेट का निर्णय। महानगर मजिस्ट्रेट इसमें पूर्व में दिए गए तरीके से निर्णय दर्ज करने के बजाय निम्नलिखित विवरण दर्ज करेगा, अर्थात: - (क) मामले की क्रम संख्या;
(ख) अपराध घटित होने की तारीख;
(ग) शिकायतकर्ता का नाम (यदि कोई हो)
(घ) अभियुक्त व्यक्ति का नाम, उसका माता-पिता और निवास स्थान;
(ई) वह अपराध जिसकी शिकायत की गई है या साबित हुआ है;
(च) अभियुक्त का अभिवचन और उसकी परीक्षा (यदि कोई हो); (छ) अंतिम आदेश;
(ज) ऐसे आदेश की तारीख;
(i) उन सभी मामलों में जिनमें अंतिम निर्णय के विरुद्ध अपील की जा सकती है।
धारा 373 के अधीन या धारा 374 की उपधारा (3) के अधीन आदेश पारित करने के पश्चात्, निर्णय के कारणों का संक्षिप्त विवरण दिया जाएगा।
356. पूर्व में दोषसिद्ध अपराधी का पता अधिसूचित करने का आदेश।
356. पहले से दोषसिद्ध अपराधी का पता अधिसूचित करने का आदेश।(1) जब कोई व्यक्ति, भारतीय दंड संहिता, (1860 का 45) की धारा 215, धारा 489ए, धारा 489बी, धारा 489सी या धारा 489डी के अधीन दंडनीय अपराध के लिए या उस संहिता के अध्याय 12 या अध्याय 17 के अधीन तीन वर्ष या उससे अधिक अवधि के कारावास से दंडनीय किसी अपराध के लिए भारत के किसी न्यायालय द्वारा दोषसिद्ध किया गया हो, द्वितीय श्रेणी मजिस्ट्रेट के न्यायालय से भिन्न किसी न्यायालय द्वारा उन धाराओं या अध्यायों में से किसी के अधीन तीन वर्ष या उससे अधिक अवधि के कारावास से दंडनीय किसी अपराध के लिए पुनः दोषसिद्ध किया जाता है, तो ऐसा न्यायालय, यदि वह ठीक समझे, ऐसे व्यक्ति पर कारावास का दंडादेश पारित करते समय यह भी आदेश दे सकता है कि रिहाई के पश्चात उसका निवास और ऐसे निवास में कोई परिवर्तन या अनुपस्थिति, ऐसे दंडादेश की समाप्ति की तारीख से पांच वर्ष से अधिक अवधि के लिए इसमें इसके पश्चात् उपबंधित रूप में अधिसूचित की जाए।
(2) उपधारा (1) के उपबंध, उसमें वर्णित अपराधों के संदर्भ में, ऐसे अपराध करने के आपराधिक षडयंत्रों तथा ऐसे अपराधों के दुष्प्रेरण तथा उन्हें करने के प्रयत्नों पर भी लागू होंगे।
(3) यदि ऐसी दोषसिद्धि अपील पर या अन्यथा अपास्त कर दी जाती है तो ऐसा आदेश शून्य हो जाएगा।
(4) इस धारा के अधीन कोई आदेश अपील न्यायालय या उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय द्वारा भी अपनी पुनरीक्षण शक्तियों का प्रयोग करते समय किया जा सकेगा।
(5) राज्य सरकार, अधिसूचना द्वारा, रिहा किए गए दोषियों द्वारा निवास की अधिसूचना या निवास में परिवर्तन या निवास से अनुपस्थिति से संबंधित इस धारा के उपबंधों को कार्यान्वित करने के लिए नियम बना सकेगी।
(6) ऐसे नियमों में उनके उल्लंघन के लिए दंड का उपबंध किया जा सकेगा और किसी ऐसे व्यक्ति पर, जिस पर ऐसे किसी नियम के उल्लंघन का आरोप लगाया गया हो, उस जिले में सक्षम अधिकारिता वाले मजिस्ट्रेट द्वारा विचारण किया जा सकेगा जिसमें उसके द्वारा अंतिम बार अपने निवास स्थान के रूप में अधिसूचित स्थान स्थित है।
357. प्रतिकर देने का आदेश।
357. प्रतिकर देने का आदेश। (1) जब न्यायालय जुर्माने का दंडादेश या ऐसा दंडादेश (जिसके अंतर्गत मृत्युदंड भी है) अधिरोपित करता है, जिसका जुर्माना भाग है, तो न्यायालय निर्णय पारित करते समय यह आदेश दे सकता है कि वसूल किए गए जुर्माने का पूरा भाग या उसका कोई भाग- (क) अभियोजन में उचित रूप से उपगत व्ययों को चुकाने में लगाया जाए;
(ख) किसी व्यक्ति को अपराध द्वारा कारित किसी हानि या क्षति के लिए प्रतिकर का संदाय करने में, जब प्रतिकर, न्यायालय की राय में, ऐसे व्यक्ति द्वारा सिविल न्यायालय में वसूल किया जा सकता है;
(ग) जब कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु कारित करने या ऐसे अपराध के किए जाने को दुष्प्रेरित करने के लिए किसी अपराध के लिए दोषसिद्ध किया जाता है, तब ऐसे व्यक्तियों को प्रतिकर देने में, जो घातक दुर्घटना अधिनियम, 1855 (1855 का 13) के अधीन, ऐसी मृत्यु से उन्हें हुई हानि के लिए दण्डादेशित व्यक्ति से हर्जाना वसूल करने के हकदार हैं;
(घ) जब कोई व्यक्ति किसी ऐसे अपराध के लिए दोषसिद्ध ठहराया जाता है, जिसमें चोरी, आपराधिक दुर्विनियोजन, आपराधिक न्यासभंग या धोखाधड़ी सम्मिलित है, या उसने बेईमानी से चोरी की गई सम्पत्ति प्राप्त की है या उसे अपने पास रखा है, या उसके निपटान में स्वेच्छा से सहायता की है, जबकि वह जानता है या विश्वास करने का कारण रखता है कि वह चोरी की गई सम्पत्ति है, तो ऐसी सम्पत्ति के किसी वास्तविक क्रेता को उस सम्पत्ति की हानि के लिए प्रतिपूर्ति करने में, यदि ऐसी सम्पत्ति उसके हकदार व्यक्ति के कब्जे में लौटा दी जाती है।
(2) यदि जुर्माना ऐसे मामले में लगाया गया है जो अपील के अधीन है, तो ऐसा कोई भुगतान अपील प्रस्तुत करने के लिए दी गई अवधि बीत जाने से पहले या, यदि अपील प्रस्तुत की जाती है, तो अपील के निर्णय से पहले नहीं किया जाएगा।
(3) जब न्यायालय ऐसा दण्ड लगाता है, जिसका जुर्माना भाग नहीं है, तब न्यायालय निर्णय पारित करते समय अभियुक्त व्यक्ति को आदेश दे सकता है कि वह प्रतिकर के रूप में ऐसी रकम दे, जो आदेश में विनिर्दिष्ट की जाए, उस व्यक्ति को, जिसे उस कार्य के कारण कोई हानि या क्षति हुई है, जिसके लिए अभियुक्त व्यक्ति को ऐसा दण्डादेश दिया गया है।
(4) इस धारा के अधीन कोई आदेश अपील न्यायालय या उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय द्वारा भी अपनी पुनरीक्षण शक्तियों का प्रयोग करते समय किया जा सकेगा।
(5) उसी मामले से संबंधित किसी पश्चातवर्ती सिविल वाद में प्रतिकर अधिनिर्णीत करते समय न्यायालय इस धारा के अधीन प्रतिकर के रूप में संदत्त या वसूल की गई किसी राशि को ध्यान में रखेगा।
357-ए. पीड़ित प्रतिकर योजना:-
(1) प्रत्येक राज्य सरकार, केन्द्रीय सरकार के समन्वय से, ऐसे पीड़ित या उसके आश्रितों को, जिन्हें अपराध के परिणामस्वरूप हानि या चोट पहुंची है और जिन्हें पुनर्वास की आवश्यकता है, प्रतिकर के प्रयोजनार्थ निधियां उपलब्ध कराने के लिए एक योजना तैयार करेगी।
(2) जब कभी न्यायालय द्वारा प्रतिकर के लिए सिफारिश की जाती है, तो यथास्थिति, जिला विधिक सेवा प्राधिकरण या राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण उपधारा (1) में निर्दिष्ट योजना के अधीन दिए जाने वाले प्रतिकर की मात्रा विनिश्चित करेगा।
(3) यदि विचारण न्यायालय, विचारण के समापन पर, संतुष्ट हो जाता है कि धारा 357 के अधीन दिया गया प्रतिकर ऐसे पुनर्वास के लिए पर्याप्त नहीं है, या जहां मामले में दोषमुक्ति हो जाती है और पीड़ित का पुनर्वास किया जाना है, तो वह प्रतिकर के लिए सिफारिश कर सकता है।
(4) जहां अपराधी का पता नहीं लगाया जा सका है या उसकी पहचान नहीं हो सकी है, लेकिन पीड़ित की पहचान हो गई है और जहां कोई सुनवाई नहीं हुई है, वहां पीड़ित या उसके आश्रित प्रतिकर के लिए राज्य या जिला विधिक सेवा प्राधिकरण को आवेदन कर सकेंगे।
(5) ऐसी सिफारिशों की प्राप्ति पर या उपधारा (4) के अधीन आवेदन पर राज्य या जिला विधिक सेवा प्राधिकरण, सम्यक् जांच के पश्चात् दो मास के भीतर जांच पूरी करके पर्याप्त प्रतिकर अधिनिर्णीत करेगा।
(6) राज्य या जिला विधिक सेवा प्राधिकरण, जैसा भी मामला हो, पीड़ित की पीड़ा को कम करने के लिए पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी या संबंधित क्षेत्र के मजिस्ट्रेट के पद से नीचे के पुलिस अधिकारी के प्रमाण पत्र पर तत्काल प्राथमिक उपचार सुविधा या निःशुल्क चिकित्सा लाभ उपलब्ध कराने का आदेश दे सकता है या कोई अन्य अंतरिम राहत, जिसे समुचित प्राधिकारी ठीक समझे।
358. निराधार रूप से गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों को प्रतिकर।
358. निराधार रूप से गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों को प्रतिकर - (1) जब कभी कोई व्यक्ति किसी पुलिस अधिकारी द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को गिरफ्तार करवाता है, तब यदि उस मजिस्ट्रेट को, जिसके द्वारा मामले की सुनवाई की जा रही है, यह प्रतीत होता है कि ऐसी गिरफ्तारी करवाने के लिए पर्याप्त आधार नहीं था, तो मजिस्ट्रेट एक सौ रुपए से अधिक का ऐसा प्रतिकर अधिनिर्णीत कर सकेगा, जो गिरफ्तारी करवाने वाले व्यक्ति द्वारा गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को, उस मामले में हुई समय की हानि और व्ययों के लिए दिया जाएगा, जैसा मजिस्ट्रेट ठीक समझे।
(2) ऐसे मामलों में, यदि एक से अधिक व्यक्ति गिरफ्तार किए जाएं तो मजिस्ट्रेट उसी प्रकार उनमें से प्रत्येक को एक सौ रुपए से अधिक नहीं, ऐसा प्रतिकर दे सकेगा जैसा वह मजिस्ट्रेट ठीक समझे।
(3) इस धारा के अधीन अधिनिर्णीत समस्त प्रतिकर ऐसे वसूल किया जा सकेगा मानो वह जुर्माना हो और यदि वह इस प्रकार वसूल नहीं किया जा सकता तो वह व्यक्ति जिसके द्वारा वह देय है, मजिस्ट्रेट द्वारा निर्दिष्ट अवधि के लिए तीस दिन से अधिक के सादा कारावास से दण्डित किया जाएगा, जब तक कि ऐसी राशि पहले न दे दी जाए।
359. असंज्ञेय मामलों में खर्च देने का आदेश।
359. असंज्ञेय मामलों में खर्चे देने का आदेश। (1) जब कभी किसी असंज्ञेय अपराध की शिकायत न्यायालय में की जाती है, तो न्यायालय, यदि वह अभियुक्त को दोषसिद्ध करता है, तो उस पर अधिरोपित शास्ति के अतिरिक्त, उसे अभियोजन में उसके द्वारा उपगत खर्चे को पूर्णतः या भागतः शिकायतकर्ता को देने का आदेश दे सकता है, और आगे यह आदेश भी दे सकता है कि भुगतान न करने पर अभियुक्त को तीस दिन से अधिक की अवधि के लिए सादा कारावास भोगना होगा और ऐसे खर्चों में आदेशिका-फीस, साक्षियों और प्लीडर की फीस के संबंध में उपगत कोई भी व्यय सम्मिलित हो सकेगा, जिसे न्यायालय उचित समझे।
(2) इस धारा के अधीन कोई आदेश अपील न्यायालय या उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय द्वारा भी अपनी पुनरीक्षण शक्तियों का प्रयोग करते समय किया जा सकेगा।
361. कुछ मामलों में विशेष कारण अभिलिखित किए जाएंगे।
361. कुछ मामलों में विशेष कारणों को अभिलिखित किया जाना। जहां किसी मामले में न्यायालय निम्नलिखित पर विचार कर सकता था,-
(क) धारा 360 के अधीन या अपराधी परिवीक्षा अधिनियम, 1958 (1958 का 20) के उपबंधों के अधीन कोई अभियुक्त व्यक्ति, या
(ख) बालक अधिनियम, 1960 (1960 का 60) या युवा अपराधियों के उपचार, प्रशिक्षण या पुनर्वास के लिए तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के अधीन कोई युवा अपराधी है, किन्तु उसने ऐसा नहीं किया है, तो वह ऐसा न करने के विशेष कारणों को अपने निर्णय में अभिलिखित करेगा।
362. निर्णय के पश्चात न्यायालय का न जाना।
362. न्यायालय द्वारा निर्णय के पश्चात् ऐसा न करना- इस संहिता या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि द्वारा अन्यथा उपबंधित के सिवाय, कोई न्यायालय, जब वह किसी मामले को निपटाने वाले अपने निर्णय या अंतिम आदेश पर हस्ताक्षर कर दे, तो लिपिकीय या अंकगणितीय त्रुटि को ठीक करने के सिवाय उसमें कोई परिवर्तन या पुनरीक्षण नहीं करेगा।
363. निर्णय की प्रतिलिपि अभियुक्त तथा अन्य व्यक्तियों को दी जाएगी।
363. निर्णय की प्रति अभियुक्त तथा अन्य व्यक्तियों को दी जाएगी। (1) जब अभियुक्त को कारावास का दण्डादेश दिया जाता है, तब निर्णय की एक प्रति, निर्णय सुनाए जाने के तुरन्त पश्चात् उसे निःशुल्क दी जाएगी।
(2) अभियुक्त के आवेदन पर निर्णय की प्रमाणित प्रतिलिपि, या जब वह चाहे तो, यदि साध्य हो तो उसकी अपनी भाषा में या न्यायालय की भाषा में अनुवाद, उसे अविलंब दिया जाएगा, तथा
ऐसी प्रतिलिपि प्रत्येक मामले में, जहां निर्णय अभियुक्त द्वारा अपील योग्य हो, निःशुल्क दी जाएगी:
बशर्ते कि जहां उच्च न्यायालय द्वारा मृत्यु दंडादेश पारित या पुष्टि की जाती है, वहां निर्णय की प्रमाणित प्रति अभियुक्त को तत्काल निःशुल्क दी जाएगी, चाहे उसने इसके लिए आवेदन किया हो या नहीं।
(3) उपधारा (2) के उपबंध धारा 117 के अधीन आदेश के संबंध में उसी प्रकार लागू होंगे, जैसे वे ऐसे निर्णय के संबंध में लागू होते हैं, जिसकी अपील अभियुक्त द्वारा की जा सकती है।
(4) जब अभियुक्त को किसी न्यायालय द्वारा मृत्यु दण्ड दिया जाता है और ऐसे निर्णय के विरुद्ध अपील अधिकार के रूप में की जा सकती है, तो न्यायालय उसे उस अवधि की जानकारी देगा जिसके भीतर, यदि वह अपील करना चाहता है, तो उसे अपील प्रस्तुत करनी चाहिए।
(5) उपधारा (2) में अन्यथा उपबंधित के सिवाय, किसी दंड न्यायालय द्वारा पारित निर्णय या आदेश से प्रभावित किसी व्यक्ति को, इस निमित्त किए गए आवेदन पर और विहित शुल्क के भुगतान पर, ऐसे निर्णय या आदेश या किसी बयान या अभिलेख के अन्य भाग की एक प्रति दी जाएगी:
परन्तु यदि न्यायालय किसी विशेष कारण से उचित समझे तो वह उसे निःशुल्क दे सकता है।
(6) उच्च न्यायालय, नियमों द्वारा, किसी दंड न्यायालय के किसी निर्णय या आदेश की प्रतियां किसी ऐसे व्यक्ति को, जो निर्णय या आदेश से प्रभावित नहीं है, ऐसे व्यक्ति द्वारा ऐसी फीस का भुगतान करने पर और ऐसी शर्तों के अधीन रहते हुए, जो उच्च न्यायालय ऐसे नियमों द्वारा प्रदान करे, प्रदान करने के लिए उपबंध कर सकेगा।
364. निर्णय कब अनुवाद किया जाना चाहिए।
364. निर्णय का अनुवाद कब किया जाएगा- मूल निर्णय कार्यवाही के अभिलेख के साथ फाइल किया जाएगा और जहां मूल निर्णय न्यायालय की भाषा से भिन्न भाषा में अभिलिखित है और अभियुक्त ऐसी मांग करता है, वहां न्यायालय की भाषा में उसका अनुवाद ऐसे अभिलेख में जोड़ा जाएगा।
365. सत्र न्यायालय द्वारा निर्णय और दण्डादेश की प्रति जिला मजिस्ट्रेट को भेजना।
365. सेशन न्यायालय द्वारा निष्कर्ष और दण्डादेश की प्रति जिला मजिस्ट्रेट को भेजी जाएगी। सेशन न्यायालय या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा विचारित मामलों में, जैसा भी मामला हो, न्यायालय या ऐसा मजिस्ट्रेट अपने निष्कर्ष और दण्डादेश (यदि कोई हो) की एक प्रति उस जिला मजिस्ट्रेट को भेजेगा, जिसकी स्थानीय अधिकारिता के भीतर विचारण हुआ था।
आपराधिक मैनुअल
निर्णय
43. (1) साक्ष्य दर्ज होने के बाद जितनी जल्दी हो सके दलीलें सुनी जानी चाहिए और फैसला सुनाया जाना चाहिए। कुछ मजिस्ट्रेट दलीलें तुरंत नहीं सुनते और दलीलें सुनने के बाद भी लंबे समय तक फैसला नहीं सुनाते। यह मुकदमे और बहस के दौरान मिली धारणाओं को मिटाने का अवांछनीय प्रभाव है। इसलिए, साक्ष्य दर्ज होने के बाद दलीलों की तुरंत सुनवाई होनी चाहिए और उसके तुरंत बाद फैसला सुनाया जाना चाहिए।
(2) जबकि कोई कठोर नियम बनाना आवश्यक नहीं है, न्यायालयों को यथासंभव दिन की बैठक के अंत में या छुट्टी या छुट्टियों के सिलसिले से ठीक पहले अभियुक्त को कारावास की सजा सुनाने से बचना चाहिए, जब तक कि गैर-जमानती मामलों में दोषी को समय पर फैसले की एक प्रति उपलब्ध नहीं कराई जा सकती है ताकि वह दिन के अंत से पहले या छुट्टी या छुट्टियों के शुरू होने से पहले जमानत के लिए आवेदन कर सके, या जब तक कि जमानतीय मामलों में न्यायालय दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 389(3) के तहत दोषी को रिहा नहीं कर देता है।
44. प्रत्येक लिखित निर्णय के शीर्ष पर सदैव सभी अभियुक्त व्यक्तियों के नाम तथा उनके क्रमांक लिखे जाएंगे जिनके आधार पर उन्हें निर्णय के दौरान क्रमशः न्यायालय को संदर्भित किया जा सकेगा।
45. (1) किसी निर्णय को उचित लंबाई के क्रमिक क्रमांकित पैराग्राफों में विभाजित किया जाना चाहिए, तथा उन्हें उप-पैराग्राफों में विभाजित करने से बचना चाहिए। यह मुख्य रूप से अपीलीय या पुनरीक्षण न्यायालय में बहस के दौरान निर्णय के किसी विशेष भाग का संदर्भ देने की सुविधा के लिए है।
(2) प्रारंभिक पैराग्राफ में संक्षेप में उस अपराध की प्रकृति बताई जानी चाहिए जिसका आरोप अभियुक्त पर लगाया गया है।
(3) अगले एक या दो पैराग्राफ में अभियोजन पक्ष और बचाव पक्ष के मामले को संक्षेप में बताया जाना चाहिए, जिसमें स्पष्ट रूप से अंतर किया जाना चाहिए कि क्या स्वीकार किया गया है और क्या नहीं। स्थानों और गांवों की सापेक्ष स्थिति और उनके बीच की दूरियाँ और पक्ष और गवाह एक दूसरे से कैसे संबंधित हैं, जैसे मामलों को इंगित किया जाना चाहिए, जहाँ ऐसे विवरण आवश्यक हों, ताकि मामले की स्पष्ट समझ हो सके।
(4) निर्णय के लिए उठने वाले बिंदुओं पर एक-एक करके विचार किया जाना चाहिए, पक्ष और विपक्ष में साक्ष्य प्रस्तुत करना चाहिए, तर्कों पर विचार करना चाहिए और प्रत्येक बिंदु पर स्पष्ट निष्कर्ष देना चाहिए। गवाहों को केवल संख्या के आधार पर संदर्भित नहीं किया जाना चाहिए। अभियुक्त व्यक्ति, जहां दो या अधिक हैं, को आमतौर पर उनकी संख्या के आधार पर संदर्भित किया जाना चाहिए। विभिन्न बिंदुओं पर अलग-अलग पैराग्राफ में विचार किया जाना चाहिए, लेकिन कुछ बिंदुओं के लिए एक से अधिक पैराग्राफ की आवश्यकता हो सकती है।
(5) निर्णय लंबे नहीं होने चाहिए और जहां तक संभव हो, दोहराव से बचना चाहिए।
(6) मजिस्ट्रेट का ध्यान दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 354 (1) (ए) और सामान्य प्रशासन विभाग की निम्नलिखित सरकारी अधिसूचना, संख्या ओएफएल-1066 (ii)-एम, दिनांक 30 अप्रैल, 1966, सरकारी राजपत्र भाग IV-ए (असाधारण) में प्रकाशित की ओर आकर्षित किया जाता है, और उन्हें निर्देश दिया जाता है कि सभी मामलों और कार्यवाहियों में निर्णय और आदेश लिखित होंगे (या तो अंग्रेजी में या मुफस्सिल अदालतों में मराठी में (सत्र न्यायालयों तक और उनमें शामिल)) हालांकि मराठी को अदालत की भाषा निर्धारित किया गया है।
(7) बशर्ते कि कार्यवाही में मराठी दस्तावेजों का अंग्रेजी में अनुवाद नहीं किया जाएगा, जब तक कि न्यायालय द्वारा अन्यथा निर्देश न दिया जाए।
महाराष्ट्र सरकार राजपत्र असाधारण, दिनांक 30 अप्रैल, 1966 की अधिसूचना (भाग IV-A में प्रकाशित)
सामान्य प्रशासन विभाग
सचिवालय, बम्बई-32, 30 अप्रैल 1966
दंड प्रक्रिया संहिता,1898
क्रमांक ओएफएल-1066-(ii)-एम. दंड प्रक्रिया संहिता, 1898 (1898 का V) की धारा 598 द्वारा महाराष्ट्र राज्य पर लागू होने वाली शक्तियों का प्रयोग करते हुए और इस निमित्त जारी की गई सभी पिछली अधिसूचनाओं को अधिक्रमित करते हुए, महाराष्ट्र सरकार, 1 मई, 1966 से, निम्नलिखित उद्देश्यों को छोड़कर, राज्य के सभी दंड न्यायालयों (उच्च न्यायालय और ग्रेटर बॉम्बे के दंड न्यायालयों को छोड़कर) की भाषा मराठी निर्धारित करती है, अर्थात्:-
शुल्क।
रिट, वारंट, सम्मन, नोटिस और अन्य आदेशिकाएँ जिन्हें निष्पादन हेतु अन्य राज्यों को भेजा जाना आवश्यक है, और उनसे संबंधित पत्राचार।
पोस्टमार्टम नोट्स और चिकित्सा विशेषज्ञ गवाहों के साक्ष्य।
पीठासीन अधिकारी द्वारा दर्ज साक्ष्य के अंग्रेजी नोट्स।
तर्क के नोट्स.
निर्णय और आदेश.
जिला न्यायालय और उच्च न्यायालय में अपील और पुनरीक्षण मामलों में पेपर पुस्तकें।
कार्यवाहियाँ (न्यायिक और प्रशासनिक दोनों) जिन्हें उच्च न्यायालय में प्रस्तुत किया जाना आवश्यक है।
उच्च न्यायालय या सांख्यिकी ब्यूरो को आवधिक रिटर्न और विवरण।
सेवा मामलों से संबंधित खातों, बजट अनुमानों और पत्राचार से संबंधित सभी खाता बहियाँ और रिटर्न और विवरण।
अधिसूचना सरकारी राजपत्र में प्रकाशित की जाएगी।
विभागीय परीक्षाएं.
विभागीय जांच से संबंधित मामले, जिनमें उच्च न्यायालय और सरकार के साथ रिपोर्ट और पत्राचार शामिल हैं।
बशर्ते कि अंग्रेजी निम्नलिखित प्रयोजनों के लिए भी भाषा हो सकती है-
(क) रोजनामा;
(बी) जंट्रीज,
(बीबी) शिकायतें और आवेदन।
© अपील का ज्ञापन.
(छ) प्रशासनिक आदेश।
(ई) उच्च न्यायालय और सरकार के साथ पत्राचार।
(च) सेवा पुस्तिका, यात्रा भत्ता बिल, वेतन बिल और अन्य बिल।
आपराधिक मैनुअल, 1980 में सुधार पर्ची।
सं .16
सरकारी अधिसूचना, सामान्य प्रशासन विभाग संख्या OFL. 1066(ii)-M, दिनांक 30 अप्रैल 1966, सरकारी अधिसूचना, सामान्य प्रशासन विभाग, संख्या OFL.1088/CR-7/XX-B, दिनांक 24 जनवरी 1989, महाराष्ट्र सरकार राजपत्र, भाग IV-A, दिनांक 18 मई 1989 में प्रकाशित के द्वारा, में संशोधन के मद्देनजर, माननीय मुख्य न्यायाधीश और न्यायाधीश यह निर्देश देने की कृपा करते हैं कि आपराधिक मैनुअल, 1980, खंड-I में निम्नलिखित संशोधन किए जाएं: -
मैं
दंड मैनुअल, 1980 के अध्याय VI के पैराग्राफ 45 के उप-पैरा (6) में, "केवल अंग्रेजी में:" शब्दों के स्थान पर "मुफस्सिल न्यायालयों में (सत्र न्यायालयों तक और उनमें शामिल) अंग्रेजी या मराठी में" शब्द प्रतिस्थापित किए जाएं।
द्वितीय
सरकारी अधिसूचना सामान्य प्रशासन विभाग, संख्या ओएफएल.1066(ii)-एम, दिनांक 30 अप्रैल 1966, जो दंड मैनुअल, 1980 के अध्याय VI के पैराग्राफ 45 के उप-पैरा (6) के नीचे पृष्ठ 114 पर प्रदर्शित है, क्रम संख्या 6 पर प्रविष्टि को हटा दें और प्रावधान में एक नया आइटम "(जी) निर्णय और आदेश" जोड़ें।
मजिस्ट्रेट एवं सत्र न्यायाधीश का ध्यान बाउचर पियरे आंद्रे बनाम अधीक्षक, केन्द्रीय जेल, तिहाड़ (एआईआर 1975 एससी 164) में दिए गए सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय तथा नारायणन नामबीसन बनाम महाराष्ट्र राज्य (76 बीआईआर 690) में उच्च न्यायालय की निम्नलिखित टिप्पणियों की ओर आकृष्ट किया जाता है:-
“ ...............याचिकाकर्ता दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 428 के तहत, उनके द्वारा सजा-पूर्व हिरासत में बिताई गई अवधि को, उनकी सजा पर लगाए गए कारावास की अवधि के विरुद्ध सेट-ऑफ के हकदार हैं। इसलिए, राज्य और संबंधित जेल अधिकारियों को तुरंत उन्हें उक्त सेट-ऑफ का लाभ देना चाहिए .................. स्वस्थ अभ्यास के रूप में, अदालतों द्वारा अभियुक्त को सजा के दौरान हिरासत में लिए जाने की अवधि को, संबंधित अधिकारियों को बिना किसी देरी के धारा 428 के प्रावधानों को लागू करने में सक्षम बनाने के उद्देश्य से। (पृष्ठ 702-703)।
जब कभी अभियुक्त की पूर्व दोषसिद्धि के कारण बढ़ा हुआ दण्डादेश पारित किया जाता है, तब न्यायालय अपने निर्णय में अभियुक्त के विरुद्ध साबित की गई या उसके द्वारा स्वीकार की गई प्रत्येक पूर्व दोषसिद्धि को, दोषसिद्धि की तारीख, वह धारा जिसके अन्तर्गत वह दी गई थी, तथा अधिरोपित दण्डादेश विनिर्दिष्ट करते हुए, वर्णित करेगा।
उन सभी मामलों में जिनमें असाधारण सुरक्षा या असामान्य उदारता के दण्ड दिए जाते हैं, या जिनमें एक ही मुकदमे में एक ही अपराध के लिए दोषसिद्ध विभिन्न व्यक्तियों को अलग-अलग स्तर का दण्ड दिया जाता है, निर्णय में वे कारण शामिल होने चाहिए जिनके आधार पर दण्ड के निर्धारण में न्यायालय को मार्गदर्शन मिला।
(1) निर्णय में मामले में उत्पादित संपत्ति के निपटान के संबंध में स्पष्ट आदेश दिए जाने चाहिए।
जब किसी आपराधिक न्यायालय को दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 452, 457 या 458 के प्रावधानों के तहत किसी नकली सिक्के के निपटान के संबंध में आदेश पारित करने की आवश्यकता होती है, तो आदेश में निर्देश दिया जाना चाहिए कि नकली सिक्का को ट्रेजरी अधिकारी को भेज दिया जाए।
निर्णय संयमित शब्दों में होना चाहिए।
यदि किसी न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट को निर्णय में किसी अन्य विभाग के अधिकारी के आचरण की आलोचना करना आवश्यक लगता है, तो आलोचना को अत्यंत सावधानी से लिखा जाना चाहिए, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि कई मामलों में अधिकारी को आलोचना का खंडन करने या आलोचना की गई कार्रवाई को स्पष्ट करने का कोई अवसर नहीं मिला है। व्यक्तिगत आरोप नहीं लगाए जाने चाहिए। निर्णय की एक प्रति उस अधिकारी को दी जानी चाहिए, जो आलोचना किए गए अधिकारी से वरिष्ठ हो।
पुलिस द्वारा अधिकार के दुरुपयोग या दुर्व्यवहार के मामले पीठासीन अधिकारी के संज्ञान में आने पर जिला मजिस्ट्रेट को निर्णय की प्रति उपलब्ध कराकर या अन्यथा, जैसा भी सुविधाजनक हो, रिपोर्ट करनी चाहिए। जब सत्र न्यायाधीश द्वारा ऐसी रिपोर्ट की जाती है, तो जिला मजिस्ट्रेट को सत्र न्यायाधीश को की गई कार्रवाई की रिपोर्ट देनी चाहिए। यदि सत्र न्यायाधीश की गई कार्रवाई से संतुष्ट नहीं है, तो वह मामले को उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार को संदर्भित कर सकता है।
सड़क दुर्घटनाओं से उत्पन्न सभी आपराधिक मामलों में, जिनमें मुकदमा अभियुक्त की दोषसिद्धि के साथ समाप्त हो गया है, दोषसिद्धि का निर्णय सुनाते समय, आपराधिक न्यायालयों को दुर्घटना के पीड़ित या उसके उत्तराधिकारी का ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित करना चाहिए कि उसे मुआवजे का अधिकार है और संबंधित मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण के समक्ष उसके लिए उपाय उपलब्ध है।
नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 के अंतर्गत मामलों में, मजिस्ट्रेट को प्रत्येक निर्णय की एक प्रति, समाज कल्याण निदेशक, महाराष्ट्र राज्य, पुणे को निःशुल्क उपलब्ध करानी चाहिए।
मामलों का उल्लेख
उच्च न्यायालयों के निर्णयों में सभी संदर्भों को पक्षों के नाम के साथ-साथ खंड की संख्या और रिपोर्ट के पृष्ठ के अनुसार उद्धृत किया जाना चाहिए, उदाहरण के लिए, नारायणन नामबीसन बनाम महाराष्ट्र राज्य (76 बोम.एलआर 690)
पैराग्राफों को क्रमांकित किया जाना है
प्रत्येक निर्णय, बयान, रिपोर्ट या अन्य कागज़ात में दो से अधिक पैराग्राफ़ वाले पैराग्राफ़ों को क्रमांकित किया जाना चाहिए। न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट के साक्ष्य के अंग्रेजी ज्ञापन में पैराग्राफ़ों की संख्या क्षेत्रीय भाषा के बयान में पैराग्राफ़ों की संख्या के समान होनी चाहिए।
न्यूनतम सज़ा से कम के कारण
54. जब कानून द्वारा निर्धारित न्यूनतम से कम सजा दी जाती है तो निर्धारित न्यूनतम से कम सजा देने के कारणों को निर्णय में दर्ज किया जाएगा।
वाक्य
(ए) सभी न्यायालयों का ध्यान दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 235(2) और 248(2) की ओर आकर्षित किया जाता है, जिसके अनुसार न्यायालय कानून के अनुसार, सजा सुनाने से पहले अभियुक्त को सजा के प्रश्न पर सुनेंगे।
एआईआर 1976, एससी 2386 (सांता सिंह बनाम पंजाब राज्य) में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार, इस प्रावधान का अनुपालन न करना आदेश को अमान्य कर देता है, क्योंकि यह अभियुक्त के प्रति अंतर्निहित और अंतर्निहित पूर्वाग्रह का कारण बनता है, क्योंकि प्राकृतिक न्याय के नियमों का उल्लंघन होता है, जिसके अनुसार अभियुक्त को न्यायालय के समक्ष अपना पक्ष रखने के अवसर से पूरी तरह से वंचित कर दिया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप न्याय में गंभीर विफलता होती है।
इस संबंध में, मजिस्ट्रेट और सत्र न्यायाधीशों का ध्यान सर्वोच्च न्यायालय के निम्नलिखित निर्णयों की ओर आकर्षित किया जाता है:-
(एआईआर1977 एससी 949) शिव मोहन सिंह बनाम राज्य (दिल्ली प्रशासन)
(एआईआर1977 एससी1066) नरपाल सिंह एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य।
(एआईआर1977 एससी1579) दगडू एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य।
(एआईआर1977 एससी 1747) तरलोक सिंह बनाम पंजाब राज्य।
(बी) (1) दंड की मात्रा और प्रकार के संबंध में न्यायालयों को दिया गया विवेकाधिकार अत्यंत व्यापक है और न्यायालयों को मामले के सभी तथ्यों और परिस्थितियों पर सावधानीपूर्वक विचार करने के बाद अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिए।
(2) कारावास की छोटी सजाएँ शायद ही कभी उपयुक्त होती हैं। वे निवारक के रूप में कार्य नहीं करती हैं और यह अवधि सुधारात्मक प्रभावों के काम करने या अपराधी के किसी उपयोगी व्यापार या व्यवसाय को सीखने के लिए पर्याप्त नहीं होती है। वे पहले या आकस्मिक अपराधियों को आदतन अपराधियों के संपर्क में लाकर नुकसान पहुँचाने की भी संभावना रखते हैं। हालाँकि, ऐसे वाक्य कराधान कानूनों, खाद्य अपमिश्रण अधिनियम और सामाजिक कल्याण को बढ़ावा देने के लिए बनाए गए अन्य कानूनों के खिलाफ अपराधों के मामले में उपयोगी उद्देश्य की पूर्ति कर सकते हैं।
ऐसे मामलों में, जिनमें कुल्हाड़ियों, भालों या अन्य घातक हथियारों से चोटें पहुंचाई गई हों, विशेष परिस्थितियों के अभाव में, नरमी से नहीं निपटा जाना चाहिए।
पिछले मामलों में दोषसिद्धि का होना ही छोटे अपराध के लिए भारी सजा सुनाने का उचित आधार नहीं है। न्यायालय को अंतिम सजा की समाप्ति के बाद के समय को ध्यान में रखना चाहिए और भारी सजा तभी सुनानी चाहिए, जब वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अभियुक्त आदतन अपराधी है।
मजिस्ट्रेटों और न्यायाधीशों का ध्यान दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 361 के अनिवार्य प्रावधानों की ओर आकृष्ट किया जाता है, जिसके अनुसार न्यायालय अपने निर्णय में उन विशेष कारणों को दर्ज करेगा कि क्यों उसने अभियुक्त व्यक्ति के साथ अपराधी परिवीक्षा अधिनियम, 1958 या बॉम्बे बालक अधिनियम, 1948 या किसी अन्य कानून के प्रावधानों के अंतर्गत कार्रवाई नहीं की है, जो युवा अपराधियों के उपचार, प्रशिक्षण या पुनर्वास के लिए लागू है, ऐसे उपयुक्त मामलों में जिनमें न्यायालय उनके साथ तदनुसार कार्रवाई कर सकता था ताकि उन्हें उक्त प्रावधानों का लाभ दिया जा सके।
अपराधियों की परिवीक्षा अधिनियम, 1958 की धारा 3 के तहत अपराधियों को चेतावनी के बाद या अच्छे आचरण की परिवीक्षा पर रिहा करने और बाल कल्याण अधिकारी (परिवीक्षा) द्वारा पर्यवेक्षण का प्रावधान है। इस अधिनियम की धारा 4 के तहत, अच्छे आचरण को बनाए रखने के लिए बांड निष्पादित करने पर अपराधी की रिहाई का आदेश दिया जा सकता है, जब उसे किसी ऐसे अपराध के लिए दोषी ठहराया जाता है जो मृत्यु या आजीवन कारावास से दंडनीय नहीं है।
बम्बई बोर्स्टल स्कूल अधिनियम, 1929 में किसी युवा अपराधी को बोर्स्टल स्कूल में रखने का प्रावधान है, लड़के के मामले में उसकी आयु 16 वर्ष से कम नहीं होनी चाहिए, या लड़की के मामले में उसकी आयु 18 वर्ष से कम नहीं होनी चाहिए, तथा दोनों ही मामलों में उसकी आयु 21 वर्ष से अधिक नहीं होनी चाहिए।
इन सभी प्रावधानों का लाभ उठाया जाना चाहिए, खास तौर पर उन मामलों में जब कोई व्यक्ति पहली बार अपराध करता है या अपराधी युवा है। मुकदमे के बहुत शुरुआती चरण में, न्यायालय को यह विचार करना चाहिए कि क्या मामला ऐसा है जिसमें इन प्रावधानों का उचित उपयोग किया जा सकता है। यदि न्यायालय को लगता है कि अपराधी की आयु, अपराध की प्रकृति और उसके द्वारा निभाई गई भूमिका को देखते हुए, अपराधी को इन प्रावधानों का लाभ दिया जा सकता है, तो उसे बाल कल्याण अधिकारी (परिवीक्षा) या अन्य माध्यम से जांच करवानी चाहिए और अपराधी की आयु, चरित्र, पूर्ववृत्त, शारीरिक और मानसिक स्थिति, वह जिन परिस्थितियों में रहता है और वह किन परिस्थितियों में अपराध करने के लिए आया, के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। यह जानकारी प्राप्त करने के बाद, न्यायालय को यह निर्णय लेना चाहिए कि मामले में किस प्रावधान का उचित उपयोग किया जा सकता है।
यदि न्यायालय किसी युवा अपराधी को उपर्युक्त किसी भी प्रावधान का लाभ नहीं देता है, तो उसे निर्देश देना चाहिए कि उसे जेल के किशोर अनुभाग में अपनी सजा काटनी चाहिए।
जुर्माना
56. जुर्माने की राशि अपराधी की आर्थिक परिस्थितियों तथा अपराध की प्रकृति और परिमाण पर विचार करने के बाद तय की जानी चाहिए; जब तक कि कानून द्वारा अन्यथा प्रावधान न किया गया हो, ऐसी राशि के लिए जुर्माना सामान्यतः नहीं लगाया जाना चाहिए, जिसकी वसूली होने की संभावना न हो।
भारतीय दंड संहिता की धारा 65 के प्रावधानों को कई न्यायाधीशों और मजिस्ट्रेटों द्वारा अनदेखा किया जाता है, और अभियुक्तों को जुर्माना अदा न करने पर निर्धारित अधिकतम सीमा से अधिक कारावास की सजा दी जाती है। इसलिए, सभी न्यायाधीशों और मजिस्ट्रेटों का ध्यान भारतीय दंड संहिता की धारा 65 के प्रावधानों की ओर आकर्षित किया जाता है। जुर्माना अदा न करने पर कारावास की सजा सुनाते समय वे इन प्रावधानों को ध्यान में रखेंगे।
दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 357 या धारा 359 के अंतर्गत भुगतान सामान्यतः तब तक नहीं किया जाना चाहिए जब तक कि अपील प्रस्तुत करने के लिए दी गई अवधि समाप्त न हो जाए या यदि अपील दायर की गई है तो अपील के निर्णय के बाद भुगतान न किया जाए।
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908
आदेश XX
न्याय और आदेश
11. निर्णय कब सुनाया गया
2 [(1)] न्यायालय, मामले की सुनवाई हो जाने के पश्चात्, खुले न्यायालय में या तो तुरन्त या उसके पश्चात् यथाशीघ्र निर्णय सुनाएगा और जब निर्णय किसी आगामी दिन सुनाया जाना हो तो न्यायालय उस प्रयोजन के लिए एक दिन नियत करेगा जिसकी सूचना पक्षकारों या उनके अधिवक्ताओं को दी जाएगी:
परन्तु जहां निर्णय तुरन्त नहीं सुनाया जाता है, वहां न्यायालय द्वारा उस तारीख से तीस दिन के भीतर निर्णय सुनाने का हर संभव प्रयास किया जाएगा, जिसको मामले की सुनवाई समाप्त हुई थी, किन्तु जहां मामले की आपवादिक और असाधारण परिस्थितियों के आधार पर ऐसा करना साध्य न हो, वहां न्यायालय निर्णय सुनाने के लिए कोई आगामी दिन नियत करेगा और ऐसा दिन साधारणतया उस तारीख से साठ दिन से अधिक नहीं होगा, जिसको मामले की सुनवाई समाप्त हुई थी, और इस प्रकार नियत दिन की सम्यक् सूचना पक्षकारों या उनके अधिवक्ताओं को दी जाएगी।
3[(2) जहां लिखित निर्णय सुनाया जाना हो, वहां यह पर्याप्त होगा कि प्रत्येक मुद्दे पर न्यायालय के निष्कर्ष और मामले में पारित अंतिम आदेश को पढ़ दिया जाए और न्यायालय के लिए संपूर्ण निर्णय को पढ़ना आवश्यक नहीं होगा,
4[* * *]
(3) यदि न्यायाधीश को उच्च न्यायालय द्वारा इस संबंध में विशेष रूप से सशक्त किया गया हो तो निर्णय खुले न्यायालय में आशुलिपिक द्वारा सुनाए जाने की अनुमति होगी:
परन्तु जहां निर्णय खुले न्यायालय में लिखवाकर सुनाया जाता है, वहां इस प्रकार सुनाए गए निर्णय की प्रतिलिपि, उसमें आवश्यक सुधार करने के पश्चात् न्यायाधीश द्वारा हस्ताक्षरित की जाएगी, उस पर वह तारीख अंकित होगी जिस दिन वह सुनाई गई थी, और वह अभिलेख का भाग होगी।]
उच्च न्यायालय संशोधन
आंध्र प्रदेश.-
मद्रास जैसा ही।
बम्बई.-
आदेश XX के नियम 1 के उपनियम (3) में, "यदि न्यायाधीश को इस संबंध में उच्च न्यायालय द्वारा विशेष रूप से सशक्त किया गया है" शब्दों को हटा दिया जाएगा (1-10-1983 से)
कर्नाटक।-
आदेश XX में, नियम 1 को उसके उपनियम (1) के रूप में पुन: संख्यांकित करें तथा निम्नलिखित उपनियम अंत:स्थापित करें, अर्थात्:-
"(2) निर्णय खुले न्यायालय में आशुलिपिक को लिखवाकर सुनाया जा सकेगा, जहां पीठासीन न्यायाधीश को उच्च न्यायालय द्वारा इस संबंध में विशेष रूप से सशक्त किया गया हो। जहां पीठासीन न्यायाधीश को इस प्रकार सशक्त नहीं किया गया हो, वहां निर्णय सुनाए जाने से पूर्व उसे लिखित रूप में प्रस्तुत किया जाएगा।" (30-3-1967 से प्रभावी)
केरल.-
आदेश XX में, नियम 1 को उसके उपनियम (1) के रूप में पुन: संख्यांकित करें तथा निम्नलिखित उपनियम अंत:स्थापित करें, अर्थात्:-
"(2) निर्णय खुले न्यायालय में आशुलिपिक को लिखवाकर सुनाया जा सकेगा।" (9-6-1959 से प्रभावी)
मद्रास.-
आदेश XX में नियम 1 के स्थान पर निम्नलिखित नियम प्रतिस्थापित किया जाएगा, अर्थात्:-
"1. (1) न्यायालय, मामले की सुनवाई हो जाने के पश्चात, खुले न्यायालय में तुरन्त या किसी आगामी दिन निर्णय सुनाएगा, जिसकी सूचना पक्षकारों या उनके अधिवक्ताओं को दी जाएगी।
(2) निर्णय खुले न्यायालय में आशुलिपिक को लिखवाकर सुनाया जा सकेगा, जहां पीठासीन न्यायाधीश को उच्च न्यायालय द्वारा इस निमित्त विशेष रूप से सशक्त किया गया हो।" (6-5-1930 से प्रभावी)
1. नियम 1, 3, 4 और 5 के प्रावधान अवध के मुख्य न्यायालय पर लागू नहीं होते हैं; देखिए अवध न्यायालय अधिनियम, 1925 (यूपी 4 सन् 1925), धारा 16(2)।
2. नियम, जिसे 1976 के अधिनियम संख्या 104 द्वारा उपनियम (1) के रूप में पुन:संख्यांकित किया गया था, 2002 के अधिनियम संख्या 22 की धारा 13 द्वारा (1-7-2002 से) प्रतिस्थापित किया जाएगा।
3. 1976 के अधिनियम सं. 104 द्वारा (1-2-1977 से) अंतःस्थापित ।
4. अधिनियम सं. 46 सन् 1999 की धारा 28 द्वारा (1-7-2002 से) कुछ शब्दों का लोप किया गया।
2. न्यायाधीश के पूर्ववर्ती द्वारा लिखित निर्णय सुनाने की शक्ति
1[न्यायाधीश] अपने पूर्ववर्ती द्वारा लिखित किन्तु न सुनाया गया निर्णय सुनाएगा।
1976 के अधिनियम सं० 104 द्वारा (1-2-1977 से) "न्यायाधीश" के स्थान पर प्रतिस्थापित।
13. फैसले पर हस्ताक्षर किए जाएंगे
निर्णय सुनाते समय न्यायाधीश द्वारा खुली अदालत में निर्णय पर तारीख डाली जाएगी और हस्ताक्षर किए जाएंगे तथा एक बार हस्ताक्षर हो जाने के बाद, धारा 152 में या पुनरीक्षण के उपबंधों को छोड़कर, बाद में उसमें कोई परिवर्तन या परिवर्धन नहीं किया जाएगा।
उच्च न्यायालय संशोधन
आंध्र प्रदेश.-
मद्रास जैसा ही।
गुजरात।-
आदेश XX में नियम 3 के स्थान पर निम्नलिखित नियम प्रतिस्थापित किया जाएगा, अर्थात्:-
"3. निर्णय पर हस्ताक्षर किया जाना.-
निर्णय पर न्यायाधीश द्वारा दिनांक अंकित किया जाएगा तथा उस पर हस्ताक्षर किए जाएंगे। जब निर्णय पर न्यायाधीश द्वारा एक बार हस्ताक्षर कर दिए जाते हैं, तो उसके बाद उसमें धारा 152 के अनुसार या समीक्षा के पश्चात कोई परिवर्तन या संशोधन नहीं किया जाएगा:
परन्तु जहां निर्णय खुले न्यायालय में आशुलिपिक को लिखवाकर सुनाया जाता है, वहां इस प्रकार सुनाए गए निर्णय की प्रतिलिपि में आवश्यक सुधार करने के पश्चात न्यायाधीश द्वारा हस्ताक्षर किए जाएंगे तथा उस पर उसके सुनाए जाने की तारीख अंकित होगी, तथा जब निर्णय पर न्यायाधीश द्वारा एक बार हस्ताक्षर कर दिए जाएं तो तत्पश्चात् उसमें धारा 152 में उपबंधित के सिवाय या पुनरीक्षण के पश्चात कोई परिवर्तन या परिवर्धन नहीं किया जाएगा।"
कर्नाटक।-
आदेश XX में, नियम 3 के स्थान पर, मद्रास के नियम के अनुसार, "धारा 152 या पुनर्विलोकन पर" शब्दों के स्थान पर "धारा 152 या पुनर्विलोकन पर" शब्द प्रतिस्थापित किए जाएं (30-3-1967 से)
केरल.-
मद्रास की तरह ही, इसमें भी परिवर्तन किया गया है कि "यह भी शर्त है कि जहां न्यायाधीश अपना निर्णय लिखवाकर सुनाता है" शब्दों के स्थान पर "यह भी शर्त है कि जहां निर्णय लिखवाकर सुनाया जाता है" शब्द रखे जाएंगे (9-5-1959 से प्रभावी)
मद्रास.-
आदेश XX में नियम 3 के स्थान पर निम्नलिखित नया नियम प्रतिस्थापित किया जाएगा, अर्थात्:-
"3. निर्णय पर हस्ताक्षर किए जाएंगे - आशुलिपि की प्रतिलिपि.-
निर्णय पर वह तारीख अंकित होगी जिस दिन वह सुनाया गया है और वह न्यायाधीश द्वारा हस्ताक्षरित होगा और एक बार हस्ताक्षरित होने के बाद, बाद में उसमें कोई परिवर्तन या परिवर्धन नहीं किया जाएगा, सिवाय धारा 152 के उपबंधों के या पुनरीक्षण के, तथा यह भी प्रावधान है कि जहां न्यायाधीश खुले न्यायालय में आशुलिपिक को लिखवाकर अपना निर्णय सुनाता है, वहां इस प्रकार सुनाए गए निर्णय की प्रतिलिपि पर ऐसे संशोधन के पश्चात, जैसा आवश्यक समझा जाए, न्यायाधीश द्वारा हस्ताक्षर किए जाएंगे।" (6-5-1930 से प्रभावी)।
राजस्थान.-
विद्यमान नियम 3 को उस नियम के उप-नियम (1) के रूप में पुन:संख्यांकित करें तथा निम्नलिखित उप-नियम अंत:स्थापित करें, अर्थात्:-
(2) जहां निर्णय खुले न्यायालय में आशुलिपिक को लिखवाकर सुनाया जाता है, वहां इस प्रकार सुनाए गए निर्णय की प्रतिलिपि, ऐसे संशोधन के पश्चात, जो आवश्यक समझा जाए, न्यायाधीश द्वारा हस्ताक्षरित की जाएगी और उस पर उसके सुनाए जाने की तारीख अंकित होगी।
(3) ऐसे मामलों में जहां निर्णय न्यायाधीश द्वारा अपने हाथ से नहीं लिखा गया है, तथा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा बोलकर लिखवाया गया है, वहां निर्णय के प्रत्येक पृष्ठ पर न्यायाधीश द्वारा अपने हस्ताक्षर किए जाएंगे।"
[देखें अधिसूचना, दिनांक 23 दिसम्बर, 1964]
1. नियम 1, 3, 4 और 5 के प्रावधान अवध के मुख्य न्यायालय पर लागू नहीं होते हैं; अवध न्यायालय अधिनियम, 1925 (यूपी 4 सन् 1925) देखें।
14. लघु वाद न्यायालयों के निर्णय
(1) लघुवाद न्यायालय के निर्णयों में निर्धारण हेतु बिंदुओं और उन पर निर्णय से अधिक कुछ शामिल होना आवश्यक नहीं है।
(2) अन्य न्यायालयों के निर्णय-अन्य न्यायालयों के निर्णयों में मामले का संक्षिप्त विवरण, निर्धारण के लिए मुद्दे, उन पर निर्णय और ऐसे निर्णय के कारण शामिल होते हैं।
उच्च न्यायालय संशोधन
केरल.-
आदेश XX के नियम 4 में-
(क) उप-नियम (1) में, "लघु वाद न्यायालयों के निर्णय" पार्श्व नोट के स्थान पर "लघु वाद के रूप में विचारित वादों में निर्णय" पार्श्व नोट प्रतिस्थापित किया जाएगा; तथा "लघु वाद न्यायालय के निर्णय" शब्दों के स्थान पर "लघु वाद के रूप में विचारित वादों में निर्णय" शब्द प्रतिस्थापित किए जाएंगे।
(ख) उप-नियम (2) में, "अन्य न्यायालयों के निर्णय" के स्थान पर "अन्य मामलों में निर्णय" के स्थान पर "अन्य न्यायालयों के निर्णय" के स्थान पर "अन्य सभी मामलों में निर्णय" के स्थान पर शब्द रखे जाएंगे।
[देखें अधिसूचना संख्या बीएल-3312/58, दिनांक 7 अप्रैल, 1959।]
1. नियम 1, 3, 4 और 5 के प्रावधान अवध के मुख्य न्यायालय पर लागू नहीं होते हैं; अवध न्यायालय अधिनियम, 1925 (यूपी 4 सन् 1925) देखें।
15. न्यायालय को प्रत्येक मुद्दे पर अपना निर्णय बताना होगा
ऐसे वादों में जिनमें विवाद्यक विरचित हो चुके हैं, न्यायालय अपना निष्कर्ष या निर्णय, उसके कारणों सहित, पृथक् विवाद्यक पर कहेगा, जब तक कि किसी एक या अधिक विवाद्यकों पर निष्कर्ष उस वाद के लिए पर्याप्त न हो।
1. नियम 1, 3, 4 और 5 के प्रावधान अवध के मुख्य न्यायालय पर लागू नहीं होते हैं; अवध न्यायालय अधिनियम, 1925 (यूपी 4 सन् 1925) देखें।
१[५ए. न्यायालय द्वारा पक्षकारों को सूचित करना कि उन मामलों में अपील कहां की जाएगी जहां पक्षकारों का प्रतिनिधित्व अधिवक्ताओं द्वारा नहीं किया जाता है।
सिवाय वहां जहां दोनों पक्षकारों का प्रतिनिधित्व वकीलों द्वारा किया जाता है, न्यायालय, अपील के अधीन किसी मामले में अपना निर्णय सुनाते समय, न्यायालय में उपस्थित पक्षकारों को सूचित करेगा कि किस न्यायालय में अपील की जा सकती है और ऐसी अपील फाइल करने की परिसीमा अवधि क्या है तथा पक्षकारों को इस प्रकार दी गई जानकारी अभिलेख पर रखेगा।]
१ १९७६ के अधिनियम सं० १०४ द्वारा अंतःस्थापित।
6. डिक्री की विषय-वस्तु
(1) डिक्री निर्णय के अनुरूप होगी; इसमें वाद की संख्या, पक्षकारों के नाम और विवरण, उनके पंजीकृत पते, दावे की विशिष्टियां अंतर्विष्ट होंगी तथा वाद में दी गई अनुतोष या अन्य अवधारण को स्पष्ट रूप से विनिर्दिष्ट किया जाएगा।
(2) डिक्री में यह भी बताया जाएगा कि वाद में कितना खर्च किया गया है, तथा यह भी बताया जाएगा कि खर्च किसके द्वारा या किस सम्पत्ति में से तथा किस अनुपात में दिया जाना है।
(3) न्यायालय यह निर्देश दे सकता है कि एक पक्षकार द्वारा दूसरे पक्षकार को देय व्यय किसी ऐसी राशि से सेट कर दिया जाएगा जो पूर्व पक्षकार से दूसरे पक्षकार को देय मानी गई हो या पाई गई हो।
उच्च न्यायालय संशोधन
आंध्र प्रदेश.-
आदेश XX के नियम 6 में,-
(क) उपनियम (1) में, "पक्षकारों का विवरण" शब्दों के पश्चात् "तारीफ के लिए उनके पते" शब्द अंतःस्थापित किए जाएंगे।
(ख) उपनियम (2) के पश्चात् निम्नलिखित उपनियम अंतःस्थापित किया जाएगा, अर्थात्:-
"(2ए) उन सभी मामलों में जिनमें चैम्पर्टी या भरण-पोषण का तत्व साबित हो जाता है, न्यायालय अंतिम डिक्री में प्रतिवादी द्वारा उचित रूप से किए गए वास्तविक व्यय के लगभग विशेष पैमाने पर लागतों का प्रावधान कर सकता है।"
बम्बई.-
आदेश XX के नियम 6 में उपनियम (1) के स्थान पर निम्नलिखित उपनियम प्रतिस्थापित किया जाएगा, अर्थात्:-
"(1) डिक्री निर्णय के अनुरूप होगी; इसमें वादपत्र प्रस्तुत करने की तारीख, वादपत्र की संख्या, वाद की संख्या, पक्षकारों के नाम और विवरण, उनके पंजीकृत पते और दावे के विवरण अंतर्विष्ट होंगे, तथा वाद में दी गई राहत या अन्य निर्धारण को स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट किया जाएगा।" (1-10-1983 से प्रभावी)
दिल्ली।-
हिमाचल प्रदेश जैसा ही।
हिमाचल प्रदेश.-
आदेश XX के नियम 6 में उपनियम (1) के पश्चात् निम्नलिखित उपनियम अंतःस्थापित किया जाएगा, अर्थात्:-
"(1ए) खंड (1) में उल्लिखित विवरणों के अतिरिक्त, डिक्री में वादी और प्रतिवादी के पते अंतर्विष्ट होंगे जैसा कि ओ. VII, आर. 19 और ओ. VIII, आर. 11 में दिया गया है या जैसा कि क्रमशः ओ. VII, आर. 24 और ओ. VIII, आर. 12 के तहत बाद में परिवर्तित किया गया है।"
कर्नाटक।-
आदेश XX में नियम 6 के स्थान पर निम्नलिखित नियम प्रतिस्थापित किया जाएगा, अर्थात्:-
"6. डिक्री की विषय-वस्तु.-
(1) डिक्री निर्णय के अनुरूप होगी; इसमें वाद की संख्या, पक्षकारों के नाम और विवरण, तामील के लिए उनके संबंधित पते, जैसा कि मूल रूप से उनके अभिवचनों में दिया गया है या जहां वे इस संहिता के आदेश VI के नियम 14 के अनुसार बाद में बदल दिए गए हैं, ऐसे परिवर्तित पते, दावे की विशिष्टियां अंतर्विष्ट होंगी और वाद में दी गई राहत या अन्य निर्धारण को स्पष्ट रूप से विनिर्दिष्ट किया जाएगा।
(2) डिक्री में यह भी बताया जाएगा कि वाद में कितना खर्च किया गया है तथा यह खर्च किसके द्वारा या किस सम्पत्ति में से तथा किस अनुपात में दिया जाना है।
(3) न्यायालय यह निर्देश दे सकता है कि एक पक्षकार द्वारा दूसरे पक्षकार को देय व्यय किसी ऐसी राशि से सेट कर दिया जाएगा जो पूर्व पक्षकार से दूसरे पक्षकार को देय मानी गई हो या पाई गई हो।
(4) उन सभी मामलों में, जिनमें चैम्पर्टी या भरण-पोषण का तत्व सिद्ध हो जाता है, न्यायालय अंतिम डिक्री में प्रतिवादी द्वारा उचित रूप से उठाए गए वास्तविक व्यय के लगभग विशेष पैमाने पर लागतों का प्रावधान कर सकता है।" (30-3-1967 से प्रभावी)
केरल.-
आंध्र प्रदेश (ए) के समान, (9-6-1959 से प्रभावी)
मद्रास.-
आंध्र प्रदेश के समान (6-5-1930 से प्रभावी)
पंजाब, हरियाणा और चंडीगढ़.-
आदेश XX के नियम 6 में,-
(क) नियम (1) के स्थान पर निम्नलिखित उपनियम प्रतिस्थापित किया जाएगा, अर्थात्:-
"(1) डिक्री निर्णय के अनुरूप होगी, इसमें वाद की संख्या, पक्षकारों के नाम और विवरण, उनके सही और नवीनतम पते (जो पक्षकारों द्वारा अंतिम बहस के समय या उससे पहले दाखिल किए जाएंगे) और दावे के विवरण अंतर्विष्ट होंगे तथा वाद में दी गई राहत या अन्य निर्धारण को स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट किया जाएगा।"
[देखें अधिसूचना जीएसआर 39/सीए 5/1908/एस. 12257 (11-4-1975 से प्रभावी)]
(ख) उपनियम (1) के पश्चात् हिमाचल प्रदेश की तरह उपनियम (1क) अंतःस्थापित किया जाएगा।
1976 के अधिनियम सं. 104 द्वारा (1-2-1977 से) "पक्षकारों के नाम और विवरण" शब्दों के स्थान पर प्रतिस्थापित।
१[६ए. डिक्री की तैयारी
(1) यह सुनिश्चित करने के लिए हर संभव प्रयास किया जाएगा कि डिक्री यथासंभव शीघ्रता से तैयार की जाए और किसी भी स्थिति में निर्णय सुनाए जाने की तारीख से पंद्रह दिन के भीतर तैयार की जाए।
(2) डिक्री की प्रति दाखिल किए बिना डिक्री के विरुद्ध अपील की जा सकती है और ऐसे मामले में न्यायालय द्वारा पक्षकार को उपलब्ध कराई गई प्रति आदेश XLI के नियम 1 के प्रयोजनों के लिए डिक्री मानी जाएगी। लेकिन जैसे ही डिक्री तैयार हो जाती है, निष्पादन के प्रयोजनों या किसी अन्य प्रयोजन के लिए निर्णय डिक्री के रूप में प्रभावी नहीं रह जाएगा।
1. 1999 के अधिनियम सं. 46 द्वारा (1-2-2002 से) धारा 28 के स्थान पर प्रतिस्थापित।
6बी. निर्णयों की प्रतियां कब उपलब्ध कराई जाएंगी
जहां निर्णय सुनाया जाता है, वहां निर्णय की प्रतियां पक्षकारों को निर्णय सुनाए जाने के तुरंत बाद उपलब्ध कराई जाएंगी, ताकि वे उच्च न्यायालय द्वारा बनाए गए नियमों में विनिर्दिष्ट प्रभारों का भुगतान करके अपील कर सकें।
7. डिक्री की तारीख
डिक्री उस दिन से मान्य होगी जिस दिन निर्णय सुनाया गया था, और जब न्यायाधीश को यह विश्वास हो जाए कि डिक्री निर्णय के अनुसार तैयार की गई है, तो वह डिक्री पर हस्ताक्षर करेगा।
उच्च न्यायालय संशोधन
बम्बई.-
आदेश XX के नियम 7 में निम्नलिखित परन्तुक अंतःस्थापित किया जाएगा, अर्थात्-
"बशर्ते कि बम्बई सिटी सिविल न्यायालय में की गई कार्यवाही में डिक्री की तारीख वही होगी जिस दिन निर्णय सुनाया गया था और वह रजिस्ट्रार के कार्यालय में रखी जाएगी तथा उसके द्वारा हस्ताक्षरित होगी तथा न्यायालय की मुहर से सीलबंद होगी।" (1-10-1983 से प्रभावी)
केरल.-
आदेश XX के नियम 7 में निम्नलिखित परंतुक अंतःस्थापित किया जाएगा, अर्थात्:-
"बशर्ते कि उच्च न्यायालय की डिक्री पर उस निमित्त सशक्त अधिकारी द्वारा हस्ताक्षर किए जा सकेंगे।" (9-6-1959 से प्रभावी)
इलाहाबाद.-
आदेश XX में नियम 7 के पश्चात् निम्नलिखित नियम अंतःस्थापित किया जाएगा, अर्थात्:-
"7ए. प्रारूप आदेश.-
दिवालियापन क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने वाले जिला न्यायालय के अधीनस्थ न्यायालय के अलावा कोई न्यायालय, धारा 144 के तहत कोई आदेश पारित करता है या ऐसा आदेश जिसके विरुद्ध धारा 104 या आदेश XLII के नियम 1 द्वारा अपील की अनुमति दी जाती है, या किसी मामले में कोई आदेश, जिसके विरुद्ध कानून द्वारा अपील की अनुमति दी जाती है, यदि कोई पक्ष औपचारिक आदेश की प्रति के लिए आवेदन करता है या न्यायालय ऐसा निर्देश देता है, तो वह अपने न्यायनिर्णयन और पक्षों द्वारा वहन की गई लागतों के ज्ञापन को शामिल करते हुए एक औपचारिक आदेश तैयार करेगा।" {3-10-1981 से प्रभावी)
8. प्रक्रिया जहां न्यायाधीश ने डिक्री पर हस्ताक्षर करने से पहले पद खाली कर दिया है
जहां कोई न्यायाधीश निर्णय सुनाने के पश्चात्, किन्तु डिक्री पर हस्ताक्षर किए बिना, पद रिक्त कर देता है, वहां ऐसे निर्णय के अनुसार तैयार की गई डिक्री पर उसके उत्तराधिकारी द्वारा, या यदि न्यायालय का अस्तित्व समाप्त हो गया है तो किसी ऐसे न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा, जिसके अधीन वह न्यायालय था, हस्ताक्षर किए जा सकेंगे।
9. अचल संपत्ति की वसूली के लिए डिक्री
जहां वाद की विषय-वस्तु अचल संपत्ति है, वहां डिक्री में ऐसी संपत्ति का ऐसा विवरण होगा जो उसे पहचानने के लिए पर्याप्त होगा, और जहां ऐसी संपत्ति की पहचान बंदोबस्त या सर्वेक्षण के अभिलेख में सीमाओं या संख्याओं से की जा सकती है, वहां डिक्री में ऐसी सीमाओं या संख्याओं को निर्दिष्ट किया जाएगा।
10. चल संपत्ति की सुपुर्दगी का आदेश
जहां वाद चल संपत्ति के लिए है, और डिक्री ऐसी संपत्ति के परिदान के लिए है, वहां डिक्री में उस धनराशि का भी उल्लेख होगा जो उस स्थिति में वैकल्पिक रूप से दी जाएगी, यदि परिदान नहीं मिल सकता।
11. डिक्री में किश्तों में भुगतान का निर्देश दिया जा सकता है
(१) जहां और जहां तक डिक्री धन के भुगतान के लिए है, न्यायालय किसी भी पर्याप्त कारण से १[ऐसे पक्षकारों की सुनवाई के पश्चात्, जो निर्णय के पूर्व अंतिम सुनवाई में व्यक्तिगत रूप से या वकील द्वारा उपस्थित हुए थे, डिक्री में यह आदेश सम्मिलित कर सकता है कि] डिक्री की गई रकम का भुगतान स्थगित कर दिया जाएगा या ब्याज सहित या बिना ब्याज के किश्तों में किया जाएगा, भले ही उस संविदा में, जिसके अधीन धन भुगतान योग्य है, किसी बात की बात हो,
(2) डिक्री के पश्चात् किस्तों में संदाय के लिए आदेश--किसी ऐसी डिक्री के पारित होने के पश्चात् न्यायालय निर्णीत-ऋणी के आवेदन पर तथा डिक्रीधारक की सहमति से आदेश दे सकेगा कि डिक्रीत रकम का संदाय स्थगित कर दिया जाएगा या ब्याज के संदाय, निर्णीत-ऋणी की संपत्ति की कुर्की, उससे प्रतिभूति लेने, या अन्यथा, जैसी वह ठीक समझे, किस्तों में किया जाएगा।
उच्च न्यायालय संशोधन
आंध्र प्रदेश.-
मद्रास जैसा ही।
मध्य प्रदेश.-
आदेश XX के नियम 11 के उपनियम (2) में, "और डिक्री-धारक की सहमति से" शब्दों के स्थान पर "और डिक्री-धारक को नोटिस देने के पश्चात" शब्द प्रतिस्थापित किए जाएंगे।
मद्रास.-
आदेश XX के नियम 11 के उपनियम (2) में, "की सहमति से" शब्दों के स्थान पर "को सूचना देने के पश्चात" शब्द प्रतिस्थापित किए जाएंगे।
उड़ीसा.-
मध्य प्रदेश जैसा ही।
[देखें अधिसूचना संख्या 24-X-7-52, दिनांक 30 मार्च, 1954।]
1976 के अधिनियम सं. 104 द्वारा (1-2-1977 से) कुछ शब्दों के स्थान पर प्रतिस्थापित।
12. कब्जे और मध्यवर्ती लाभ के लिए डिक्री
(1) जहां कोई वाद स्थावर संपत्ति के कब्जे की वसूली तथा किराये या अन्तःस्थायी लाभ के लिए है, वहां न्यायालय डिक्री पारित कर सकता है-
(क) संपत्ति के कब्जे के लिए;
1[(ख) ऐसे किराये के लिए जो वाद संस्थित करने या ऐसे किराये के संबंध में जांच का निर्देश देने से पूर्व की अवधि के दौरान संपत्ति पर प्रोद्भूत हुए हैं;
(खक) मध्यवर्ती लाभ के लिए या मध्यवर्ती लाभ के बारे में जांच का निर्देश देना;]
(ग) वाद संस्थित करने से प्राप्त किराये या मध्यवर्ती लाभ के बारे में जांच का निर्देश देना, जब तक कि-
(i) डिक्रीदार को कब्जे का वितरण,
(ii) न्यायालय के माध्यम से डिक्रीधारक को नोटिस देकर निर्णय-ऋणी द्वारा कब्जे का त्याग, या
(iii) डिक्री की तारीख से तीन वर्ष की समाप्ति, जो भी घटना पहले घटित हो।
(2) जहां खंड (ख) या खंड (ग) के अधीन जांच का निर्देश दिया जाता है, वहां किराये या अन्तःस्थायी लाभ के संबंध में अंतिम डिक्री ऐसी जांच के परिणाम के अनुसार पारित की जाएगी।
उच्च न्यायालय संशोधन
आंध्र प्रदेश.-
मद्रास जैसा ही।
कर्नाटक।-
मद्रास के समान, सिवाय इसके कि "अंतिम डिक्री" शब्दों के स्थान पर "अंतिम डिक्री" शब्द प्रतिस्थापित किए जाएं (30-3-1967 से)
केरल.-
मद्रास के समान, (9-6-1959 से प्रभावी)
मद्रास.-
आदेश XX के नियम 12 में उपनियम (2) के पश्चात् निम्नलिखित उपनियम अंतःस्थापित किया जाएगा, अर्थात्:-
"(3) जहां अपील न्यायालय ऐसी जांच का निर्देश देता है, वहां वह प्रथम न्यायालय को जांच करने का निर्देश दे सकता है; और प्रत्येक मामले में प्रथम न्यायालय अपनी इच्छा से जांच कर सकता है और जब कभी डिक्रीदार द्वारा ऐसा करने का अनुरोध किया जाएगा, तो वह जांच करेगा और अंतिम डिक्री पारित करेगा।"
[देखें प्रकाशन संख्या 93, 1941]
1976 के अधिनियम सं. 104 द्वारा (1-2-1977 से) खंड (ख) के स्थान पर प्रतिस्थापित।
१[१२ए. स्थावर संपत्ति के विक्रय या पट्टे के लिए संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिए डिक्री
जहां स्थावर संपत्ति के विक्रय या पट्टे के लिए संविदा के विनिर्दिष्ट निष्पादन के लिए डिक्री में यह आदेश दिया जाता है कि क्रय धन या अन्य राशि क्रेता या पट्टेदार द्वारा अदा की जाए, वहां उसमें वह अवधि विनिर्दिष्ट की जाएगी जिसके भीतर भुगतान किया जाएगा।]
1. 1976 के अधिनियम सं. 104 द्वारा अंतःस्थापित।
13. प्रशासन मुकदमे में डिक्री
(1) जहां कोई वाद न्यायालय की डिक्री के अधीन किसी संपत्ति के लेखा-जोखा और उसके सम्यक् प्रशासन के लिए है, वहां न्यायालय अंतिम डिक्री पारित करने से पूर्व एक प्रारंभिक डिक्री पारित करेगा जिसमें ऐसे लेखा लेने और जांच करने का आदेश दिया जाएगा तथा ऐसे अन्य निर्देश दिए जाएंगे, जो वह ठीक समझे।
(2) न्यायालय द्वारा किसी मृत व्यक्ति की संपत्ति के प्रशासन में, यदि ऐसी संपत्ति उसके ऋणों और दायित्वों के पूर्ण भुगतान के लिए अपर्याप्त सिद्ध होती है, तो सुरक्षित और असुरक्षित लेनदारों के अपने-अपने अधिकारों के बारे में तथा प्रमाणित किए जा सकने वाले ऋणों और दायित्वों के बारे में, तथा क्रमशः वार्षिकी और भावी और आकस्मिक दायित्वों के मूल्यांकन के बारे में वही नियम लागू होंगे, जो उस न्यायालय की स्थानीय सीमाओं के भीतर, जिसमें दिवालिया न्यायनिर्णीत या दिवालिया घोषित किए गए व्यक्तियों की सम्पदाओं के संबंध में प्रशासन वाद लंबित है, तत्समय प्रवृत्त हों, और सभी व्यक्ति, जो किसी ऐसे मामले में ऐसी संपत्ति में से भुगतान पाने के हकदार होंगे, प्रारंभिक डिक्री के अधीन आ सकेंगे और उसके विरुद्ध ऐसे दावे कर सकेंगे, जिनके वे क्रमशः इस संहिता के आधार पर हकदार हो सकते हैं।
14. पूर्वक्रय वाद में डिक्री
(1) जहां न्यायालय किसी विशिष्ट संपत्ति विक्रय के संबंध में पूर्वक्रय का दावा करने का आदेश देता है और क्रय-धन न्यायालय में जमा नहीं किया गया है, वहां आदेश-
(क) वह दिन विनिर्दिष्ट कर सकेगा जिस दिन या उससे पूर्व क्रय-धन का भुगतान किया जाएगा, तथा
(ख) निर्देश दे सकेगी कि ऐसी क्रय-राशि, लागतों सहित (यदि कोई हो) वादी के विरुद्ध डिक्री के खंड (क) में निर्दिष्ट दिन को या उससे पूर्व न्यायालय में संदत्त कर देने पर प्रतिवादी संपत्ति का कब्जा वादी को दे देगा, जिसका उस पर स्वामित्व ऐसे संदाय की तारीख से आरोपित समझा जाएगा, किन्तु यदि क्रय-राशि और लागतों (यदि कोई हो) का इस प्रकार संदाय नहीं किया जाता है तो वाद लागतों सहित खारिज कर दिया जाएगा।
(2) जहां न्यायालय ने पूर्वक्रय के प्रतिद्वन्द्वी दावों पर निर्णय दे दिया है, वहां डिक्री में निर्देश दिया जाएगा कि,—
(क) यदि और जहां तक डिक्री किए गए दावे परिमाण में समान हैं, तो उपनियम (1) के उपबंधों का अनुपालन करने वाले प्रत्येक अग्रग्राही का दावा संपत्ति के आनुपातिक हिस्से के संबंध में प्रभावी होगा, जिसके अंतर्गत कोई आनुपातिक हिस्सा भी है जिसके संबंध में उक्त उपबंधों का अनुपालन करने में असफल रहने वाले किसी अग्रग्राही का दावा ऐसे व्यतिक्रम के बिना प्रभावी होता; और
(ख) यदि और जहां तक अधिनिर्णित दावे परिमाण में भिन्न हैं, तो निम्नतर अधिप्राप्ति का दावा तब तक प्रभावी नहीं होगा जब तक कि उच्चतर अधिप्राप्तकर्ता उक्त उपबंधों का अनुपालन करने में असफल न हो जाए।
उच्च न्यायालय संशोधन
बम्बई.-
आदेश XX के नियम 14 के उपनियम (1)7 में खण्ड (ख) के पश्चात् निम्नलिखित परन्तुक अंतःस्थापित किया जाएगा, अर्थात्:-
"बशर्ते कि यदि संपत्ति पर फसलें खड़ी हों, तो संपत्ति का कब्जा वादी को तब तक नहीं दिया जाएगा जब तक कि ऐसी फसलें नहीं काट ली जातीं। तथापि, वादी, न्यायालय में उसके द्वारा क्रय राशि और लागत (यदि कोई हो) के भुगतान की तारीख और प्रतिवादी द्वारा उसे कब्जा दिए जाने की तारीख के बीच की अवधि के संबंध में न्यायालय में उसके द्वारा जमा की गई राशि पर न्यायालय के विवेकानुसार 6 प्रतिशत प्रति वर्ष से अधिक साधारण ब्याज पाने का हकदार होगा।" (1-10-1983 से प्रभावी)
कर्नाटक।-
आदेश XX के नियम 14 के उपनियम (2) में, खंड (ख) के पश्चात् निम्नलिखित परंतुक अंतःस्थापित किया जाएगा, अर्थात्:-
"परन्तु यदि सम्पत्ति पर फसलें खड़ी हैं तो न्यायालय वादी को सम्पत्ति का परिदान फसल कट जाने तक स्थगित कर सकता है तथा निर्देश दे सकता है कि प्रतिवादी वादी को, क्रय राशि तथा लागत, यदि कोई हो, न्यायालय में जमा करने की तारीख से लेकर कब्जे का परिदान स्थगित करने की तारीख तक की अवधि के लिए, न्यायालय में वादी द्वारा जमा की गई राशि पर प्रति वर्ष 6 प्रतिशत से अधिक न होने वाली दर से साधारण ब्याज का भुगतान करे।" (30-3-1967 से प्रभावी)
मध्य प्रदेश.-
बम्बई जैसा ही।
15. साझेदारी विघटन के लिए वाद में डिक्री
जहां कोई वाद साझेदारी के विघटन या साझेदारी लेखा लेने के लिए है, वहां न्यायालय अंतिम डिक्री पारित करने से पूर्व एक प्रारंभिक डिक्री पारित कर सकेगा जिसमें पक्षकारों के आनुपातिक अंशों की घोषणा की जाएगी, वह दिन निश्चित किया जाएगा जिस दिन साझेदारी विघटित हो जाएगी या विघटित समझी जाएगी, तथा ऐसे लेखा लेने और अन्य कार्य करने का निर्देश दिया जाएगा जैसा वह ठीक समझे।
16. प्रिंसिपल और एजेंट के बीच खाते के लिए मुकदमे में डिक्री
प्रधान और अभिकर्ता के बीच धन संबंधी लेन-देनों का लेखा लेने के लिए वाद में, और किसी अन्य वाद में, जिसके लिए इसमें पहले उपबंध नहीं किया गया है, जहां यह आवश्यक है कि किसी पक्षकार को या उससे देय धनराशि का लेखा लिया जाए, वहां न्यायालय अपनी अंतिम डिक्री पारित करने से पूर्व, ऐसे लेखा लेने का निर्देश देते हुए प्रारंभिक डिक्री पारित करेगा, जैसा वह ठीक समझे।
17. लेखा के संबंध में विशेष निर्देश
न्यायालय या तो लेखा लेने का निर्देश देने वाली डिक्री द्वारा या किसी पश्चातवर्ती आदेश द्वारा, लेखा लेने या प्रमाणित करने के ढंग के संबंध में विशेष निर्देश दे सकेगा और विशिष्टतया यह निर्देश दे सकेगा कि लेखा लेते समय, जिन लेखा पुस्तकों में प्रश्नगत खाते रखे गए हैं, उन्हें उनमें अंतर्विष्ट बातों की सत्यता का प्रथमदृष्टया साक्ष्य माना जाएगा तथा हितबद्ध पक्षकारों को उस पर ऐसी आपत्ति करने की स्वतंत्रता होगी जैसी उन्हें सलाह दी जाए।
18. संपत्ति के विभाजन या उसमें हिस्से के अलग कब्जे के लिए वाद में डिक्री
जहां न्यायालय संपत्ति के विभाजन या उसमें किसी हिस्से के पृथक कब्जे के लिए डिक्री पारित करता है, वहां,—
(१) यदि और जहाँ तक डिक्री सरकार को राजस्व के भुगतान के लिए निर्धारित संपत्ति से संबंधित है, डिक्री संपत्ति में हितबद्ध विभिन्न पक्षकारों के अधिकारों की घोषणा करेगी,-किन्तु ऐसा विभाजन या पृथक्करण कलेक्टर द्वारा, या कलेक्टर द्वारा इस निमित्त प्रतिनियुक्त किसी राजपत्रित अधीनस्थ द्वारा, ऐसी घोषणा के अनुसार और धारा ५४ के उपबंधों के अनुसार किए जाने का निर्देश देगी;
(2) यदि और जहां तक ऐसी डिक्री किसी अन्य स्थावर संपत्ति या जंगम संपत्ति से संबंधित है, तो न्यायालय, यदि विभाजन या पृथक्करण बिना अतिरिक्त जांच के सुविधाजनक रूप से नहीं किया जा सकता है, तो संपत्ति में हितबद्ध विभिन्न पक्षकारों के अधिकारों की घोषणा करते हुए तथा ऐसे अतिरिक्त निर्देश देते हुए, जो अपेक्षित हों, प्रारंभिक डिक्री पारित कर सकता है।
उच्च न्यायालय संशोधन
केरल.-
आदेश XX में नियम 18 के स्थान पर निम्नलिखित नियम प्रतिस्थापित किया जाएगा, अर्थात्:-
"18. जब न्यायालय संपत्ति के विभाजन या उसमें किसी हिस्से के पृथक कब्जे के लिए डिक्री पारित करता है, तो न्यायालय, यदि विभाजन या पृथक्करण बिना आगे की जांच के सुविधाजनक रूप से नहीं किया जा सकता है, तो संपत्ति में हितबद्ध विभिन्न पक्षकारों के अधिकारों की घोषणा करते हुए तथा ऐसे अतिरिक्त निर्देश देते हुए, जो अपेक्षित हों, प्रारंभिक डिक्री पारित कर सकता है।
19. डिक्री जब सेट-ऑफ या काउंटर-दावों की अनुमति दी जाती है
(1) जहां प्रतिवादी को वादी के दावे के विरुद्ध मुजरा [या प्रतिदावा] अनुज्ञात किया गया है, वहां डिक्री में यह कथन किया जाएगा कि वादी को कितनी रकम देय है और प्रतिवादी को कितनी रकम देय है, और वह किसी ऐसी राशि की वसूली के लिए होगी जो किसी भी पक्षकार को देय प्रतीत होती है।
(2) मुजरा या प्रतिदावे से संबंधित डिक्री से अपील-किसी ऐसे वाद में पारित कोई डिक्री, जिसमें मुजरा 1[या प्रतिदावा] का दावा किया गया है, अपील के संबंध में उन्हीं उपबंधों के अधीन होगी, जिनके अधीन वह होती, यदि मुजरा 1[या प्रतिदावा] का दावा न किया गया होता।
(3) इस नियम के प्रावधान लागू होंगे चाहे सेट-ऑफ आदेश VIII के नियम 6 के तहत स्वीकार्य हो या अन्यथा।
उच्च न्यायालय संशोधन
इलाहाबाद.-
आदेश XX के नियम 19 के उपनियम (1) में, अंत में पूर्ण विराम के स्थान पर अल्पविराम रखा जाएगा तथा निम्नलिखित शब्द अंत:स्थापित किए जाएंगे, अर्थात्:-
"लेकिन वादी के विरुद्ध तब तक कोई डिक्री पारित नहीं की जाएगी जब तक कि मुजरा करने का दावा उस तारीख को सीमा के भीतर न हो जिस दिन लिखित बयान प्रस्तुत किया गया था।"
[देखें अधिसूचना संख्या 1353/35 (ए)-3, दिनांक 21 मार्च, 1936]
1. 1976 के अधिनियम सं. 104 द्वारा अंतःस्थापित।
20. निर्णय और डिक्री की प्रमाणित प्रतियां प्रस्तुत की जाएंगी
निर्णय और डिक्री की प्रमाणित प्रतियां पक्षकारों को न्यायालय में आवेदन करने पर, उनके व्यय पर उपलब्ध कराई जाएंगी।
उच्च न्यायालय संशोधन
बम्बई.-
आदेश XX में, नियम 20 को उस नियम के उप-नियम (1) के रूप में पुन: संख्यांकित करें और निम्नलिखित उप-नियम अंत:स्थापित करें, अर्थात्:-
"(2) आवेदन पक्षकार स्वयं या उसके वकील द्वारा किया जा सकता है और डाक द्वारा भी भेजा जा सकता है। जब कभी ऐसा आवेदन डाक द्वारा भेजा जाता है तो उसे पावती के लिए अग्रिम भुगतान के साथ पंजीकृत डाक द्वारा भेजा जाएगा। जब आवेदन डाक द्वारा भेजा जाता है तो यदि आवेदन पंजीकृत डाक द्वारा किया जाता है तो उसे डाक द्वारा भेजे जाने की तारीख को भेजा गया माना जाएगा, लेकिन यदि वह पंजीकृत डाक के अलावा किसी अन्य डाक द्वारा भेजा जाता है तो उसे न्यायालय के कार्यालय द्वारा प्राप्त किए जाने की तारीख को भेजा गया माना जाएगा।" (1-10-1983 से प्रभावी)
मध्य प्रदेश.-आदेश XX में नियम 20 के स्थान पर निम्नलिखित नियम प्रतिस्थापित किया जाए, अर्थात्:-
"20. निर्णय और डिक्री की प्रमाणित प्रतियां आवेदन करने पर पक्षकारों को उनके खर्च पर उपलब्ध कराई जाएंगी। - प्रतियों के लिए आवेदन व्यक्तिगत रूप से या किसी एजेंट या वकील द्वारा प्रस्तुत किए जा सकते हैं या उस कार्यालय के मुख्य प्रतिलिपिकार को डाक द्वारा भेजे जा सकते हैं, जहां वह रिकॉर्ड, जिसके लिए प्रतियों के लिए आवेदन किया गया है, अंततः सुरक्षित अभिरक्षा के लिए जमा किया जाएगा। जब किसी ऐसे स्टेशन पर न्यायालय की अस्थायी अभिरक्षा में किसी रिकॉर्ड से प्रतियां आवश्यक हों, जहां कोई रिकॉर्ड रूम नहीं है, तो उस स्टेशन पर वरिष्ठ न्यायाधीश को व्यक्तिगत रूप से किसी एजेंट या वकील द्वारा आवेदन प्रस्तुत किया जा सकता है:
बशर्ते कि न्यायाधीश न तो डाक से प्राप्त आवेदनों का अनुपालन करेगा और न ही डाक से उनकी प्रतियां भेजेगा।" (दिनांक 13-6-1952 से प्रभावी)
सिविल मैनुअल
अध्याय 11
लागतों के कराधान पर निर्णय, डिक्री
निर्णय और डिक्री
267. न्यायालयों का ध्यान धारा 33, तथा सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश XX के नियम 1 से 5 और 5-ए की ओर आकृष्ट किया जाता है, जिसे अधिनियम संख्या 104 सन् 1976 द्वारा संशोधित किया गया है, जिसमें निर्णयों की घोषणा के संबंध में विस्तृत निर्देश दिए गए हैं।
यह विशेष रूप से ध्यान में रखा जाना चाहिए कि निर्णय खुली अदालत में सुनाया जाना चाहिए और जिस तारीख को निर्णय सुनाया जाना है उसे अधिसूचित किया जाना चाहिए।
न्यायाधीश को निर्णय की प्रतिलिपि पर हस्ताक्षर करने की तारीख अलग से अंकित करनी चाहिए।
268. सभी निर्णय और आदेश केवल अंग्रेजी में लिखे जाने चाहिए। सभी निर्णय और कार्यवाही केवल फुलस्केप पेपर पर लिखी जानी चाहिए, तथा शीट का एक चौथाई हाशिया खाली छोड़ना चाहिए।
269. प्रत्येक निर्णय को विधिवत् क्रमांकित करके तैयार किया जाना चाहिए।
270. जब कोई निर्णय या आदेश टाइप किया जाता है, तो प्रत्येक पृष्ठ पर न्यायाधीश के आद्याक्षर अंकित होने चाहिए।
271. जहां निर्णयों में भारतीय तिथियों का उल्लेख किया गया है, वहां ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार संगत तिथियों को जोड़ा जाना चाहिए। क्षेत्रीय भाषा के शब्दों का उपयोग निर्णयों में तब नहीं किया जाना चाहिए जब ऐसे शब्दों के अंग्रेजी पर्यायवाची शब्दों का उपयोग अर्थ को हानि पहुंचाए बिना किया जा सकता हो। यदि क्षेत्रीय भाषा में कोई शब्द इस्तेमाल किया गया है, तो उसके निकटतम अंग्रेजी पर्यायवाची को कोष्ठक में जोड़ा जाना चाहिए।
272. न्यायाधीश को स्थानांतरण पर तब तक कार्यभार नहीं सौंपना चाहिए जब तक कि वह निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे सभी मामलों का निपटारा नहीं कर लेता। यदि वह अपने प्रस्थान से पहले उपलब्ध समय के भीतर ऐसा नहीं कर सकता है, तो उसे जिला न्यायाधीश को रिपोर्ट करना चाहिए जो उच्च न्यायालय या सरकार से मंजूरी प्राप्त करने के बाद उसे थोड़े समय के लिए रोक सकता है।
273. जब कोई सिविल न्यायाधीश कुछ समय के लिए दो स्थानों पर बारी-बारी से कार्य करता है, तो वह सुनवाई के अंत में पक्षकारों की सहमति से किसी भी स्थान पर अपना निर्णय या आदेश सुना सकता है।