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भारतीय दंड संहिता

आईपीसी धारा 191- झूठा साक्ष्य देना

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1. आईपीसी धारा 191 का कानूनी पाठ 2. आईपीसी धारा 191 को सरल शब्दों में समझें

2.1. आईपीसी धारा 191 क्या है?

2.2. आईपीसी धारा 191 कब लागू होती है?

2.3. यह अनुभाग महत्वपूर्ण क्यों है?

3. आईपीसी धारा 191 में प्रमुख शब्द - झूठा साक्ष्य देना 4. आईपीसी धारा 191 के मुख्य पहलू: एक सारणीबद्ध अवलोकन

4.1. केस कानूनों का महत्व

5. ऐतिहासिक मामले और उनका विश्लेषण

5.1. 1. सम्राट बनाम छोटेलाल लल्लूभाई (1931)

5.2. 2. पवन कुमार बनाम हरियाणा राज्य (1996)

5.3. 3. केहर सिंह एवं अन्य। बनाम राज्य (दिल्ली प्रशासन) (1988)

5.4. 4. क्वीन एम्प्रेस बनाम तुलजा (1888)

6. समकालीन संदर्भ में आईपीसी धारा 191 की प्रासंगिकता 7. अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

7.1. प्रश्न 1. आईपीसी की धारा 191 के तहत झूठी गवाही देने की सजा क्या है?

7.2. प्रश्न 2. क्या अदालती कार्यवाही के बाहर दिए गए झूठे साक्ष्य को आईपीसी की धारा 191 के तहत दंडित किया जा सकता है?

7.3. प्रश्न 3. न्यायालय यह कैसे निर्धारित कर सकता है कि झूठा साक्ष्य जानबूझकर दिया गया था?

भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) भारतीय कानूनी प्रणाली की आधारशिला है, जो गलत कार्यों को विनियमित करने और दंडित करने के लिए विस्तृत प्रावधान प्रदान करती है। इसके कई खंडों में से, आईपीसी धारा 191 झूठे साक्ष्य देने के अपराध को संबोधित करती है, जो न्याय के क्षेत्र में एक गंभीर अपराध है। यह सुनिश्चित करता है कि शपथ या कानूनी दायित्व के तहत सच्ची जानकारी प्रदान करने के लिए व्यक्तियों को जवाबदेह ठहराकर कानूनी कार्यवाही अपनी पवित्रता बनाए रखे।

इस विस्तृत लेख में, हम IPC धारा 191 से संबंधित पाठ, अर्थ, मुख्य शब्द, न्यायिक व्याख्या और ऐतिहासिक निर्णयों पर गहराई से चर्चा करेंगे, साथ ही न्याय प्रणाली में इसकी प्रासंगिकता और निहितार्थों का भी पता लगाएंगे। अंत में अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न अतिरिक्त स्पष्टता प्रदान करते हैं।

आईपीसी धारा 191 का कानूनी पाठ

भारतीय दंड संहिता की धारा 191 का वास्तविक अर्थ इस प्रकार है:

"जो कोई शपथ द्वारा या विधि के किसी अभिव्यक्त उपबंध द्वारा सत्य कथन करने के लिए वैध रूप से आबद्ध होते हुए, या किसी विषय पर घोषणा करने के लिए विधि द्वारा आबद्ध होते हुए, कोई ऐसा कथन करता है जो मिथ्या है, और जिसके बारे में वह या तो जानता है या विश्वास करता है कि वह मिथ्या है, या जिसके सत्य होने का उसे विश्वास नहीं है, वह मिथ्या साक्ष्य देता है, यह कहा जाता है।"

आईपीसी धारा 191 को सरल शब्दों में समझें

आईपीसी धारा 191 क्या है?

अपने मूल में, IPC धारा 191 झूठी गवाही देने को लक्षित करती है - कानूनी या अर्ध-कानूनी कार्यवाही के दौरान झूठे बयान देने का कार्य। न्याय की जीत के लिए, कानूनी प्रणाली को सटीक, ईमानदार जानकारी की आवश्यकता होती है। यह प्रावधान एक सुरक्षा है, जो उन व्यक्तियों को दंडित करता है जो जानबूझकर गलत जानकारी प्रस्तुत करके अदालतों या अन्य कानूनी निकायों को गुमराह करते हैं।

आईपीसी धारा 191 कब लागू होती है?

  1. कानूनी दायित्व: व्यक्ति को सच बोलने के लिए कानूनी रूप से बाध्य होना चाहिए। यह दायित्व निम्नलिखित कारणों से उत्पन्न होता है:

    • न्यायालयों या न्यायाधिकरणों में दिलाई गई शपथ।

    • वैधानिक प्रावधानों में सत्य घोषणाओं की आवश्यकता होती है (जैसे, शपथपत्र)।

  2. जानबूझकर झूठ बोलना: व्यक्ति जानबूझकर गलत जानकारी प्रदान करता है या बिना विश्वास किए घोषणा करता है कि वह सच है।

  3. आवेदन का दायरा:

    • न्यायिक या अर्ध-न्यायिक कार्यवाही के दौरान दिए गए बयान, जैसे कि अदालत में दिए गए बयान या शपथ पत्र।

    • वैधानिक आदेशों के अंतर्गत घोषणाएं, जैसे कि कर दाखिल करना या शपथ पत्र।

यह अनुभाग महत्वपूर्ण क्यों है?

झूठे साक्ष्य न्यायिक प्रक्रिया की बुनियाद को कमजोर कर देते हैं। इससे:

  • गलत दोषसिद्धि या दोषमुक्ति की ओर ले जाना।

  • न्यायिक संसाधनों की बर्बादी।

  • न्याय प्रणाली में जनता का विश्वास नष्ट करना।
    ऐसे कृत्यों को दंडित करके, आईपीसी की धारा 191 न्यायिक प्रक्रियाओं की अखंडता को बनाए रखती है और न्याय का निष्पक्ष प्रशासन सुनिश्चित करती है।

आईपीसी धारा 191 में प्रमुख शब्द - झूठा साक्ष्य देना

इस अनुभाग को बेहतर ढंग से समझने के लिए, आइए इसके प्रमुख शब्दों पर नज़र डालें:

  1. कानूनी रूप से शपथ से बंधे:

    • व्यक्ति को सच बोलने के लिए शपथ लेनी चाहिए या कानूनी तौर पर बाध्य होना चाहिए। इसमें अदालत में गवाह या हलफनामा देने वाले व्यक्ति शामिल हैं।

  2. झूठा कथन:

    • कोई भी कथन या जानकारी जो सत्य के विपरीत हो।

  3. मिथ्यात्व का ज्ञान:

    • अभियुक्त को या तो यह पता होना चाहिए कि बयान झूठा है या उसे इसकी सच्चाई पर विश्वास नहीं है।

  4. न्यायिक या अर्ध-न्यायिक कार्यवाही:

    • अदालतों, न्यायाधिकरणों या वैधानिक जांचों में दिए गए बयान इस धारा के अंतर्गत आते हैं।

  5. गुमराह करने का इरादा:

    • इस अपराध के लिए कार्यवाही या प्राधिकारियों को धोखा देने के लिए जानबूझकर की गई कार्रवाई की आवश्यकता होती है।

  6. घोषणाएँ:

    • इसमें न केवल मौखिक साक्ष्य बल्कि लिखित घोषणाएं, शपथपत्र या अन्य शपथ दस्तावेज भी शामिल हैं।

आईपीसी धारा 191 के मुख्य पहलू: एक सारणीबद्ध अवलोकन

पहलू

विवरण

अपराध की प्रकृति

झूठी गवाही देना (झूठी गवाही देना)।

कार्यवाही का प्रकार

न्यायिक और अर्ध-न्यायिक कार्यवाही।

कानूनी दायित्व

व्यक्ति को सत्य बताने के लिए कानून द्वारा बाध्य होना चाहिए, चाहे वह शपथ के माध्यम से हो या क़ानून के माध्यम से।

अपराध का सार

जानबूझकर झूठे बयान देना।

दायरा

इसमें कानून द्वारा अनिवार्य साक्ष्य, शपथपत्र और घोषणाएं शामिल हैं।

कानून का उद्देश्य

न्यायिक प्रक्रियाओं की अखंडता की रक्षा करना और न्याय सुनिश्चित करना।

सज़ा

आईपीसी की धारा 193 के तहत कारावास या जुर्माने का प्रावधान है।

उदाहरण

  • अदालत में झूठी गवाही देना।

केस कानूनों का महत्व

आईपीसी की धारा 191 की न्यायिक व्याख्याओं ने इसके दायरे, तत्वों और विभिन्न परिदृश्यों में इसके अनुप्रयोग को स्पष्ट किया है। ये मामले न्यायपालिका द्वारा सत्य को बनाए रखने पर जोर दिए जाने को भी रेखांकित करते हैं।

ऐतिहासिक मामले और उनका विश्लेषण

1. सम्राट बनाम छोटेलाल लल्लूभाई (1931)

न्यायालय: बॉम्बे उच्च न्यायालय
कुंजी ले जाएं:
इस मामले में इरादे को साबित करने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया। अभियोजन पक्ष को यह साबित करना होगा कि अभियुक्त ने जानबूझकर गलत बयान दिए, न कि केवल यह कि बयान झूठे थे।

महत्व:
इस निर्णय में स्पष्ट किया गया कि अनजाने में या भूलवश बोले गए झूठ को मिथ्या साक्ष्य देना नहीं माना जाएगा।

2. पवन कुमार बनाम हरियाणा राज्य (1996)

न्यायालय: भारत का सर्वोच्च न्यायालय
कुंजी ले जाएं:
न्यायालय ने कहा कि झूठे साक्ष्य देना एक गंभीर अपराध है जो न्यायिक प्रक्रिया के मूल ढांचे को खतरे में डालता है। न्यायालय ने कानूनी कार्यवाही में झूठ को रोकने के लिए झूठी गवाही के खिलाफ सख्त कार्रवाई पर जोर दिया।

महत्व:
इस मामले ने इस सिद्धांत को मजबूत किया कि न्याय के लिए गवाही में सत्यनिष्ठा आवश्यक है।

3. केहर सिंह एवं अन्य। बनाम राज्य (दिल्ली प्रशासन) (1988)

न्यायालय: भारत का सर्वोच्च न्यायालय
कुंजी ले जाएं:
सर्वोच्च न्यायालय ने एक उच्च-स्तरीय मुकदमे में गढ़े गए साक्ष्यों के प्रयोग पर विचार किया तथा न्याय प्रणाली पर झूठे साक्ष्यों के विनाशकारी प्रभाव पर बल दिया।

महत्व:
इस निर्णय ने झूठ के माध्यम से कानूनी प्रक्रियाओं को कमजोर करने वालों को दंडित करने की न्यायपालिका की जिम्मेदारी को दोहराया।

4. क्वीन एम्प्रेस बनाम तुलजा (1888)

न्यायालय: बॉम्बे उच्च न्यायालय
कुंजी ले जाएं:
इस मामले में आईपीसी की धारा 191 को कानूनी बाध्यता के तहत दिए गए बयानों तक सीमित कर दिया गया। इसमें आकस्मिक या गैर-अनिवार्य बयानों को इसके दायरे से बाहर रखा गया।

महत्व:
इस मामले ने धारा की प्रयोज्यता को प्रतिबंधित कर दिया, तथा यह सुनिश्चित किया कि यह न्यायिक या वैधानिक ढांचे के बाहर दिए गए बयानों पर लागू न हो।

समकालीन संदर्भ में आईपीसी धारा 191 की प्रासंगिकता

आज के समय में कानूनी विवादों और जटिल मुकदमों के बढ़ने के कारण, साक्ष्य की सत्यता सुनिश्चित करना पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। झूठे साक्ष्य परिणामों को प्रभावित कर सकते हैं, जिससे गलत दोषसिद्धि, वित्तीय नुकसान या सामाजिक नुकसान हो सकता है। हाल के मामलों से पता चला है कि इस धारा के तहत हलफनामों और ऑनलाइन घोषणाओं की भी जांच की जा सकती है, जो आधुनिक कानूनी चुनौतियों के लिए इसकी अनुकूलता को दर्शाता है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

प्रश्न 1. आईपीसी की धारा 191 के तहत झूठी गवाही देने की सजा क्या है?

झूठे साक्ष्य देने की सज़ा आईपीसी की धारा 193 के तहत निर्धारित की गई है, जिसमें सात साल तक की कैद और/या जुर्माने का प्रावधान है। दंड की गंभीरता न्यायिक कार्यवाही पर झूठे साक्ष्य की प्रकृति और प्रभाव पर निर्भर करती है।

प्रश्न 2. क्या अदालती कार्यवाही के बाहर दिए गए झूठे साक्ष्य को आईपीसी की धारा 191 के तहत दंडित किया जा सकता है?

नहीं, आईपीसी की धारा 191 केवल कानूनी दायित्व के तहत दिए गए बयानों पर लागू होती है, जैसे कि अदालत में शपथ या वैधानिक घोषणाएँ। आकस्मिक रूप से या इन ढाँचों के बाहर दिए गए बयान इसके दायरे में नहीं आते।

प्रश्न 3. न्यायालय यह कैसे निर्धारित कर सकता है कि झूठा साक्ष्य जानबूझकर दिया गया था?

न्यायालय परिस्थितियों की जांच करके, अभियुक्त को बयान के झूठ होने के बारे में जानकारी होने पर, तथा यह देखकर कि क्या जानबूझकर गुमराह करने का प्रयास किया गया था, इरादे का आकलन करते हैं। अभियोजन पक्ष को उचित संदेह से परे इरादे को साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत पेश करने होंगे।