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भारतीय दंड संहिता

भारतीय दंड संहिता (IPC) धारा 359 - अपहरण

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अपहरण, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सुरक्षा पर गंभीर प्रहार करता है, एक महत्वपूर्ण अपराध है जिसे भारतीय कानून द्वारा गंभीरता से लिया गया है। भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) के तहत धारा 359 अपहरण को दो प्रकारों में वर्गीकृत करती है: भारत से अपहरण और विधिक अभिभावकता से अपहरण। इस लेख में धारा 359 की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, कानूनी व्याख्या, महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय और वर्तमान समय में इसके सामने आने वाली चुनौतियों पर विस्तृत चर्चा की गई है।

कानूनी प्रावधान

भारतीय दंड संहिता की धारा 359 में कहा गया है:

“अपहरण दो प्रकार का होता है:

  1. भारत से अपहरण, और
  2. विधिक अभिभावकता से अपहरण।

अपहरण का मतलब किसी व्यक्ति को उसके सामान्य परिवेश से बिना वैध कारण हटाना है। IPC में प्रत्येक प्रकार के अपहरण के लिए विशिष्ट प्रावधान शामिल हैं ताकि कानून स्पष्ट और व्यापक हो।

IPC धारा 359: मुख्य तत्व

धारा 359 के मुख्य तत्व इस प्रकार हैं:

  • सीमाओं के पार ले जाना: किसी व्यक्ति को भारत की सीमाओं से बाहर ले जाना।
  • सहमति का अभाव: व्यक्ति या उसके अभिभावक की सहमति के बिना यह कार्य होना चाहिए।
  • अवैध उद्देश्य: उद्देश्य कानून के खिलाफ होना चाहिए, जैसे कि व्यक्ति को अवैध रूप से देश से बाहर ले जाना।

IPC धारा 359 के प्रमुख विवरण

पहलू भारत से अपहरण विधिक अभिभावकता से अपहरण
कानूनी प्रावधान धारा 360 के तहत परिभाषित धारा 361 के तहत परिभाषित
परिभाषा किसी व्यक्ति को उसकी या उसके अभिभावक की सहमति के बिना भारत की सीमाओं के बाहर ले जाना। अभिभावक की सहमति के बिना किसी नाबालिग (16 साल से कम आयु के पुरुष या 18 साल से कम आयु की महिला) या मानसिक रूप से असक्षम व्यक्ति को अभिभावक की देखरेख से हटाना।
उम्र या स्थिति विशिष्ट उम्र या मानसिक स्थिति का उल्लेख नहीं। नाबालिग या मानसिक रूप से असक्षम व्यक्ति शामिल।
सहमति व्यक्ति या अभिभावक की सहमति का अभाव। अभिभावक की सहमति का अभाव अनिवार्य।
प्रमुख तत्व व्यक्ति को अवैध रूप से भारत की सीमाओं से बाहर ले जाना। व्यक्ति को अभिभावक से अवैध रूप से हटाना।
सजा धारा 363 के तहत 7 साल तक की सजा और जुर्माना। धारा 363 के तहत 7 साल तक की सजा और जुर्माना।
सीमाएँ भारत की सीमाओं को पार करना शामिल। भारत की सीमाओं के भीतर अपराध।
अपराध का स्वरूप संज्ञेय, गैर-जमानती, और गैर-समाधेय। संज्ञेय, गैर-जमानती, और गैर-समाधेय।

धारा 359 का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

धारा 359 की जड़ें ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में हैं, जब 1860 में IPC का निर्माण किया गया। यह कानून अंग्रेजी सामान्य कानून के सिद्धांतों से प्रभावित था, जिसने अपहरण को गंभीर अपराध माना।

महत्वपूर्ण मामले

धारा 359 से जुड़े कुछ प्रमुख न्यायिक मामले:

**एस. वरदराजन बनाम मद्रास राज्य (1965)**

इस मामले में, अदालत ने "ले जाने" और "प्रलोभन" के अर्थ को स्पष्ट किया। अदालत ने कहा कि "ले जाना" व्यक्ति को शारीरिक रूप से अभिभावक से हटाने को संदर्भित करता है, जबकि "प्रलोभन" में व्यक्ति को आकर्षित करने के लिए प्रेरणा देना शामिल है।

**हरियाणा राज्य बनाम राजा राम (1973)**

इस मामले में अभिभावक की सहमति के अभाव पर जोर दिया गया। अदालत ने कहा कि यदि अभिभावक की सहमति है, तो अपहरण का अपराध नहीं बनता।

निष्कर्ष

IPC की धारा 359 अपहरण के अपराध को संबोधित करने के लिए एक मजबूत नींव प्रदान करती है। इस प्रावधान का प्रभावी कार्यान्वयन समाज को इस अपराध से सुरक्षित रखने में मदद करता है।

FAQs

प्रश्न 1: भारत से अपहरण और विधिक अभिभावकता से अपहरण में क्या अंतर है?

भारत से अपहरण में किसी को देश की सीमा के बाहर ले जाना शामिल है, जबकि विधिक अभिभावकता से अपहरण में नाबालिग या मानसिक रूप से असक्षम व्यक्ति को अभिभावक से हटाना शामिल है।

प्रश्न 2: अपहरण की सजा क्या है?

दोनों प्रकार के अपहरण के लिए IPC की धारा 363 के तहत 7 साल तक की सजा और जुर्माने का प्रावधान है।

प्रश्न 3: अभिभावक की सहमति की क्या भूमिका है?

यदि अभिभावक की सहमति है, तो अपहरण का अपराध नहीं बनता।

संदर्भ

  1. https://indiankanoon.org/doc/990563/
  2. https://testbook.com/landmark-judgements/s-varadarajan-vs-state-of-madras
  3. https://indiankanoon.org/doc/148143479/
  4. https://blog.ipleaders.in/taking-enticing-lawful-guardianship-minor/