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व्यभिचार के मामले में गुजारा भत्ता

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भारत में वैवाहिक विवादों के दौरान वित्तीय सहायता से जुड़े कानूनी सवाल अक्सर जटिल हो जाते हैं। ऐसा ही एक संवेदनशील मुद्दा है—व्यभिचार (Adultery) के मामलों में गुज़ारा भत्ता, जिसमें यह तय करना होता है कि क्या व्यभिचारी जीवनसाथी वित्तीय सहायता का हकदार है। भारत के विभिन्न व्यक्तिगत कानून जैसे हिंदू विवाह अधिनियम, मुस्लिम पर्सनल लॉ और ईसाई तलाक अधिनियम, व्यभिचार के प्रभाव को अलग-अलग तरीके से संबोधित करते हैं। हालांकि अदालतें आय, जीवनशैली और आचरण जैसे कई कारकों को ध्यान में रखती हैं, लेकिन व्यभिचार सिद्ध होने पर गुज़ारा भत्ते के निर्णय पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है।

यह लेख व्यभिचार के मामलों में गुज़ारा भत्ता से जुड़े कानूनी पहलुओं, प्रमुख न्यायिक निर्णयों, और वैधानिक प्रावधानों की गहराई से व्याख्या करता है।

भारत में व्यभिचारी जीवनसाथी के खिलाफ कानून

भारत में गुज़ारा भत्ता और भरण-पोषण अलग-अलग धार्मिक कानूनों द्वारा शासित होते हैं, जो धर्म के अनुसार अलग प्रावधानों को मान्यता देते हैं। नीचे बताया गया है कि व्यभिचार के मामलों में ये कानून किस प्रकार अलग-अलग कार्य करते हैं:

  • हिंदू कानून: हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 के तहत पति या पत्नी में से कोई भी भरण-पोषण का दावा कर सकता है। विवादित तलाक के मामलों में यदि कोई पक्ष दोषी पाया जाए, तो दूसरा पक्ष गुज़ारा भत्ता मांग सकता है।
  • मुस्लिम कानून: मुस्लिम महिला (तलाक के बाद अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत केवल महिलाएं गुज़ारा भत्ते की हकदार होती हैं, भले ही वह आर्थिक रूप से सक्षम हों।
  • ईसाई कानून: भारतीय तलाक अधिनियम, 1869 की धाराएं 36, 37, और 38 के तहत, अदालतें स्थायी व अस्थायी भरण-पोषण का निर्धारण कर सकती हैं। व्यभिचार यदि तलाक का आधार हो, तो निर्दोष पक्ष गुज़ारा भत्ता मांग सकता है।
  • विशेष विवाह अधिनियम: 1954 के तहत व्यभिचार के आधार पर तलाक की स्थिति में, अदालतें दोनों पक्षों की आर्थिक स्थिति के अनुसार गुज़ारा भत्ता तय करती हैं।

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यदि पति ने व्यभिचार किया हो और पत्नी निर्दोष हो

यदि पति ने व्यभिचार किया हो और पत्नी निर्दोष हो, तो वह गुज़ारा भत्ते की पूर्ण हकदार होती है। अदालत उसकी ज़रूरत, आत्मनिर्भरता और विवाह के दौरान बनी जीवनशैली के आधार पर भत्ता तय करती है।

  • दोनों की आर्थिक स्थिति: अदालत दोनों की आय, संपत्ति, और देनदारियों का मूल्यांकन करती है।
  • विवाह के दौरान जीवनशैली: विवाह के दौरान जीवन का स्तर भी महत्वपूर्ण माना जाता है।
  • उम्र और स्वास्थ्य: इलाज व भविष्य की आय की संभावना को देखते हुए निर्णय लिए जाते हैं।
  • वैवाहिक योगदान: वित्तीय व घरेलू योगदान को भी महत्व दिया जाता है।
  • बच्चों की कस्टडी: यदि बच्चे हैं, तो उससे जुड़ी ज़िम्मेदारियां भी फैसले को प्रभावित करती हैं।
  • संपत्ति और ऋण: गुज़ारा भत्ते का निर्णय करते समय इन पहलुओं का मूल्यांकन किया जाता है।

भारत में व्यभिचारी पति के खिलाफ कानूनी कार्रवाई

भारत में व्यभिचारी पति के खिलाफ कानूनी कार्रवाई मुख्य रूप से व्यक्तिगत कानूनों के तहत तलाक और मानसिक क्रूरता के आधार पर की जाती है। सुप्रीम कोर्ट के Joseph Shine बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2018) फैसले के अनुसार, व्यभिचार अब आपराधिक अपराध नहीं है, लेकिन तलाक का वैध आधार बना हुआ है।

तलाक के आधार:

  • हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13(1)(i) और 13(1)(ia) के तहत व्यभिचार और मानसिक क्रूरता तलाक के आधार हैं।
  • विशेष विवाह अधिनियम और भारतीय तलाक अधिनियम में भी व्यभिचार को तलाक का आधार माना गया है।

पत्नी के कानूनी उपाय:

  • तलाक याचिका: पत्नी फैमिली कोर्ट में पति के बाहरी संबंधों के आधार पर तलाक की याचिका दायर कर सकती है।
  • भरण-पोषण: सीआरपीसी की धारा 125 या व्यक्तिगत कानूनों के तहत पत्नी गुज़ारा भत्ता मांग सकती है।
  • बच्चों की कस्टडी: यदि बच्चे हैं, तो पत्नी गार्जियन एंड वार्ड्स एक्ट, 1890 के तहत कस्टडी का दावा कर सकती है।

यदि पत्नी ने व्यभिचार किया हो और पति निर्दोष हो

यदि पत्नी व्यभिचारी हो, तो अदालतें सामान्यतः उसे गुज़ारा भत्ते से वंचित कर सकती हैं। हालांकि, यह स्वतः लागू नहीं होता। यदि पत्नी की आर्थिक स्थिति कमजोर हो, तो अदालत स्थिति के आधार पर सीमित सहायता राशि दे सकती है।

क्या पत्नी द्वारा धोखा देने पर पति को गुज़ारा भत्ता देना होगा?

सीधा उत्तर यह है कि अगर पत्नी व्यभिचार कर रही है और यह साबित हो जाता है, तो सीआरपीसी की धारा 125(4) के अनुसार वह गुज़ारा भत्ता पाने की पात्र नहीं रहती।

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 25 के तहत भी पत्नी के आचरण, पति की आय और अन्य परिस्थितियों को ध्यान में रखकर अदालतें गुज़ारा भत्ते का निर्णय लेती हैं।

व्यभिचार के प्रभाव:

  • अगर पति यह सिद्ध कर दे कि पत्नी व्यभिचार कर रही थी, तो अदालत उसकी भत्ता मांग को खारिज कर सकती है। सिद्ध करने का दायित्व पति पर होता है।
  • भले ही भत्ता देना पड़े, पत्नी के व्यवहार के आधार पर राशि कम की जा सकती है।

अपवाद और न्यायिक विवेक:

  • यदि पत्नी आर्थिक रूप से पूरी तरह निर्भर है, तो अदालत सीमित सहायता दे सकती है।
  • बच्चों या अन्य आश्रितों की उपस्थिति को भी ध्यान में रखा जाता है।
  • अवधि – विवाह की अवधि को भी निर्णय में महत्व मिलता है।

महत्वपूर्ण केस और निर्णय

केस 1

अदालत: कर्नाटक हाई कोर्ट

न्यायाधीश: राजेंद्र बदामीकर

सारांश: डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट के तहत पत्नी द्वारा रखे गए भरण-पोषण के दावे को कोर्ट ने यह कहकर खारिज कर दिया कि उसके अफेयर के पर्याप्त प्रमाण मिले थे।

निर्णय: कोर्ट ने सेशंस कोर्ट के निर्णय को सही ठहराया और सहायता देने से इनकार कर दिया।

केस 2

अदालत: दिल्ली हाई कोर्ट

न्यायाधीश: चंद्रधारी सिंह

सारांश: कोर्ट ने कहा कि "कभी-कभार" का व्यभिचार या क्रूरता पत्नी को भरण-पोषण से वंचित नहीं करता। पति को ₹15,000 प्रति माह देने का आदेश दिया गया।

निर्णय: पति की अपील खारिज की गई, और भरण-पोषण का आदेश बरकरार रखा गया।

केस 3

अदालत: राजस्थान हाई कोर्ट - जोधपुर

न्यायाधीश: अशोक कुमार जैन

सारांश: धारा 482 CrPC के तहत पत्नी के व्यभिचार को आधार बनाकर पति ने सहायता से इनकार किया, लेकिन पर्याप्त सबूत नहीं मिलने के कारण कोर्ट ने याचिका खारिज कर दी।

निर्णय: याचिका खारिज करते हुए भरण-पोषण का आदेश यथावत रखा गया।

निष्कर्ष

व्यभिचार के मामलों में गुज़ारा भत्ता एक जटिल कानूनी मुद्दा है, जो प्रत्येक मामले की परिस्थितियों के अनुसार निर्णय मांगता है। भारतीय अदालतें न्याय और निष्पक्षता के सिद्धांतों को संतुलित करते हुए, कभी-कभी भत्ता अस्वीकार कर देती हैं या उसमें कटौती करती हैं।

यदि आप ऐसे किसी मामले का सामना कर रहे हैं, तो एक अनुभवी पारिवारिक वकील से सलाह लेना आपके अधिकारों और कानूनी दायित्वों को समझने में मदद कर सकता है।

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