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अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989: उद्देश्य, प्रावधान और सजा का पूरा विवरण

3.1. SC/ST समुदायों के खिलाफ अत्याचार क्या हैं?
4. इस अधिनियम के तहत दंडनीय अपराध 5. पीड़ितों और गवाहों की सुरक्षा के लिए विशेष प्रावधान 6. हाल के संशोधन और कानूनी विकास 7. अधिनियम से संबंधित कानूनी चुनौतियाँ और विवाद 8. SC/ST अत्याचार अधिनियम पर सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णय 9. निष्कर्ष 10. संदर्भ:क्या आप जानते हैं?
आजादी के इतने सालों बाद भी, हमारे समाज में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के साथ होने वाले अन्याय खत्म नहीं हुए हैं। सरकारी रिपोर्टों के मुताबिक, 2022 में SCs के खिलाफ 51,656 और STs के खिलाफ 9,735 मामले अत्याचार के दर्ज किए गए।
इन्हीं अन्यायों को रोकने के लिए सरकार ने 1989 में SC/ST अत्याचार निवारण अधिनियम लागू किया, जो इन समुदायों को कानूनी अधिकार और न्याय की गारंटी देता है।
अगर कोई व्यक्ति इन वर्गों के साथ जानबूझकर अपमान, सामाजिक बहिष्कार, ज़मीन से बेदखली या हिंसा करता है, तो उसे कानूनी रूप से सख्त सजा दी जा सकती है – 6 महीने से लेकर उम्रकैद।
समाज में बदलाव लाना है, तो पहले न्याय और समानता को समझना होगा।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
मानव वर्गीकरण की शुरुआत वेदों से मानी जाती है। ऋग्वेद में वर्ण व्यवस्था के रूप में सामाजिक विभाजन का उल्लेख मिलता है, जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र शामिल थे। इस व्यवस्था का प्रमुख स्रोत मनुस्मृति मानी जाती है। ऐसा माना जाता है कि शूद्रों की उत्पत्ति ब्राह्मणों से हुई थी। वैदिक युग में अछूत जैसी कोई धारणा नहीं थी। 'अछूत' शब्द और उनसे बहिष्कार की भावना बाद की साहित्यिक रचनाओं जैसे मनुस्मृति में देखी जाती है।
ब्रिटिश शासन, जो स्वयं एक वर्ग-आधारित समाज से आए थे, ने भारत की जाति व्यवस्था को समझने और इस्तेमाल करने की कोशिश की। उन्होंने धर्म, जाति और अन्य सामाजिक विभाजनों के आधार पर 'फूट डालो और राज करो' की नीति अपनाई। 1932 का पूना समझौता, जो गांधी और आंबेडकर के बीच हुआ था, इस विभाजन को और गहरा करने वाला एक प्रमुख क्षण माना जाता है। 1793 में लॉर्ड कॉर्नवालिस द्वारा लागू की गई ज़मींदारी प्रणाली ने भी समाज के निचले तबकों को सबसे ज़्यादा प्रभावित किया, जिससे सामाजिक-आर्थिक असमानता बढ़ी।
संविधान लागू होने के बाद भी अस्पृश्यता की प्रथा खत्म नहीं हो सकी, इसी कारण 1955 में ‘अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम’ पारित किया गया। लेकिन इस कानून की कमियों के कारण 1976 में इसका नाम बदलकर ‘नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम’ रखा गया। फिर भी दलित समुदाय कई मामलों में शोषित बना रहा।
जब भी दलित समुदाय अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने या संघर्ष करने की कोशिश करता, तो प्रभावशाली वर्ग उन्हें डराने और दबाने का प्रयास करता। भारतीय दंड संहिता और 1955 का नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम जैसे मौजूदा कानून इन अपराधों को रोकने में असमर्थ थे। इस स्थिति को समझते हुए संसद ने 1989 में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम और 1995 में इसके नियम बनाए।
SC/ST अत्याचार अधिनियम की आवश्यकता
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 342(1) और 366(25) के तहत, अनुसूचित जातियों और जनजातियों को राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित विशेष समूह के रूप में परिभाषित किया गया है। इस अधिनियम की आवश्यकता को समझने के लिए नीचे कुछ महत्वपूर्ण बिंदु दिए गए हैं:
- यह अधिनियम SC और ST समुदायों के खिलाफ अपराधों को रोकने के लिए बनाया गया प्रमुख कानून है। इसके तहत विशेष न्यायालयों और विशिष्ट विशेष न्यायालयों की स्थापना की जाती है ताकि अत्याचारों के आरोपियों पर तेज़ी से सुनवाई हो सके।
- यह अधिनियम पीड़ितों को मुफ्त पुनर्वास, यात्रा, और भरण-पोषण व्यय प्रदान करता है और अधिकारियों को यह सुनिश्चित करने का अधिकार देता है कि कानून सही तरीके से लागू हो।
- यह कानून दलितों के सामाजिक, आर्थिक, लोकतांत्रिक और राजनीतिक अधिकारों की रक्षा करता है, विशेष रूप से जब आपराधिक गतिविधियां उनके अधिकारों को खतरे में डालती हैं।
- यह अधिनियम हाशिये पर मौजूद समुदायों को वंचना से बचाने और रोकने का कार्य करता है।
SC/ST अत्याचार अधिनियम के प्रमुख प्रावधान
हजारों वर्षों से जाति व्यवस्था भारतीय संस्कृति का एक मूल हिस्सा रही है, जिसके कारण कुछ समुदायों के प्रति भेदभाव और असमानता फैली। इस भेदभाव के चलते अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) को हिंसा, शोषण और उनके मूल अधिकारों से वंचित किया गया। यही इस अधिनियम के निर्माण का प्रमुख कारण बना।
इस अधिनियम के कुछ महत्वपूर्ण प्रावधान नीचे दिए गए हैं:
SC/ST समुदायों के खिलाफ अत्याचार क्या हैं?
SC/ST अधिनियम की धारा 3 "अत्याचार" को निम्नलिखित कार्यों के रूप में परिभाषित करती है:
- अनुसूचित जाति या जनजाति के व्यक्ति को उसकी सामाजिक स्थिति के आधार पर जानबूझकर अपमानित या डराना।
- SC/ST समुदाय के सदस्य को ऐसा कार्य करने के लिए मजबूर करना जो उनके धर्म या सामाजिक परंपराओं द्वारा निषिद्ध हो।
- SC/ST व्यक्ति को अमान्य या अपवित्र पदार्थ पीने या खाने के लिए मजबूर करना।
- जाति के आधार पर किसी व्यक्ति को मानसिक या शारीरिक रूप से प्रताड़ित करना।
- SC/ST समुदाय के सदस्य को भूमि या संपत्ति से गलत तरीके से बेदखल करना।
- उनके पूजा स्थल को अपवित्र करना या कुएं, तालाब, सड़क या अन्य सार्वजनिक स्थानों के उपयोग से इनकार करना।
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इस अधिनियम के तहत दंडनीय अपराध
धारा 14 के अंतर्गत इस अधिनियम के उल्लंघन से संबंधित मामलों की सुनवाई के लिए विशेष न्यायालयों की स्थापना का प्रावधान है। ये विशेष न्यायालय विशेष रूप से SC/ST अधिनियम के अंतर्गत दर्ज अपराधों की त्वरित और प्रभावी सुनवाई सुनिश्चित करते हैं।
अधिनियम यह स्पष्ट करता है कि जब कोई गैर-SC/ST व्यक्ति SC/ST समुदाय के सदस्य के खिलाफ कुछ विशेष कृत्य करता है, तो वह एक अपराध माना जाएगा। संशोधन अधिनियम के तहत कुछ नए अपराधों को शामिल किया गया है और कुछ मौजूदा अपराधों में संशोधन किया गया है। नए जोड़े गए अपराधों में शामिल हैं:
- जूते की माला पहनाना;
- किसी को मानव या जानवर का शव उठाने या मैनुअल स्कैवेंजिंग जैसे कार्य करने के लिए मजबूर करना;
- SC/ST समुदाय के व्यक्ति को सार्वजनिक रूप से उसके नाम से अपमानित करना;
- SC/ST समुदाय के खिलाफ वैमनस्य फैलाना, किसी मृत व्यक्ति का अपमान करना, या सामाजिक/आर्थिक बहिष्कार लागू करने या उसकी धमकी देना।
पीड़ितों और गवाहों की सुरक्षा के लिए विशेष प्रावधान
SC/ST अत्याचार अधिनियम के तहत मामलों में गवाहों की सुरक्षा के लिए धारा 10 का प्रावधान है। इसका अर्थ है कि इस अधिनियम के अंतर्गत आने वाले मामलों में गवाहों को हमले और डराने-धमकाने से सुरक्षा प्राप्त होती है। यह प्रावधान इसलिए महत्वपूर्ण है ताकि गवाह बिना किसी प्रतिशोध के भय के, सामने आकर सच्चाई बयान कर सकें।
हाल के संशोधन और कानूनी विकास
2015 में लागू किया गया अत्याचार निवारण (संशोधन) अधिनियम, 2015 अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों (SC/ST) के लिए सुरक्षा के दायरे को और अधिक बढ़ाने वाला एक महत्वपूर्ण कानून है।
इस संशोधन के तहत कुछ नए अपराधों को शामिल किया गया, जिनमें शामिल हैं:
- किसी की मूंछ या सिर का उपहास उड़ाना या अन्य अपमानजनक व्यवहार करना।
- SC/ST समुदाय को जंगल या सिंचाई प्रणाली जैसे अधिकारों से वंचित करना।
- कब्र खोदना, मानव या जानवरों के अवशेषों को ले जाना या निपटाना।
- स्वेच्छा से या दूसरों को मैनुअल स्कैवेंजिंग (हाथ से मैला उठवाना) करवाना।
- किसी महिला को 'देवदासी' कहकर संबोधित करना।
- जातिगत आधार पर गाली देना या अपमान करना।
- जादूटोना से संबंधित अपराध करना।
- सामाजिक या आर्थिक बहिष्कार को लागू करना या उसकी धमकी देना।
- SC/ST समुदाय के उम्मीदवारों को नामांकन पत्र दाखिल करने से रोकना।
- SC/ST महिलाओं को उनके घरों या फ्लैट्स से जबरन निकालना।
- SC/ST समुदाय के लिए पवित्र या मूल्यवान वस्तुओं को दूषित करना।
- SC/ST सदस्यों पर हाथ उठाना या अश्लील इशारे, टिप्पणियाँ या हरकतें करना।
इन नए प्रावधानों के अतिरिक्त, कुछ अन्य महत्वपूर्ण बदलाव भी किए गए हैं:
- चार्जशीट दाखिल होने के बाद, कोर्ट सीधे संज्ञान ले सकती है और दो महीने के भीतर मामले का निपटारा करने का प्रयास करती है।
- इस संशोधन के अंतर्गत विशेष न्यायालयों की स्थापना की गई है जो SC/ST समुदायों के खिलाफ भेदभाव की शिकायतों की सुनवाई के लिए विशेष रूप से गठित हैं।
- "जानबूझकर लापरवाही" की स्पष्ट परिभाषा सभी स्तरों के सरकारी कर्मचारियों पर लागू होती है।
- जब तक सिद्ध न हो जाए, माना जाएगा कि आरोपी पीड़ित की जाति या जनजाति पहचान को जानता था क्योंकि वह उसका परिचित, मित्र या रिश्तेदार है।
इस संशोधन का उद्देश्य भारत में जातिगत भेदभाव की लंबे समय से चली आ रही समस्या को संबोधित करना है। 2017 में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) ने बताया कि SC/ST समुदायों के खिलाफ 44,000 से अधिक अत्याचार के मामले सामने आए। यह संशोधन पीड़ितों को न्याय दिलाने और अपराधियों पर तेज़ कार्रवाई सुनिश्चित करने की दिशा में एक प्रयास है।
अधिनियम से संबंधित कानूनी चुनौतियाँ और विवाद
इस अधिनियम से जुड़ी कुछ प्रमुख कानूनी चुनौतियाँ और विवाद निम्नलिखित हैं:
- पुनर्वास उपाय: पीड़ितों के सामाजिक और आर्थिक पुनर्वास के लिए अधिनियम में उपलब्ध उपाय बहुत सीमित हैं। पीड़ितों को शारीरिक और मानसिक पीड़ा के अलावा असुरक्षा और सामाजिक अपमान का भी सामना करना पड़ता है। उनके प्रभावी पुनर्वास के लिए अतिरिक्त वित्तीय सहायता की आवश्यकता है।
- जागरूकता की कमी: कई लाभार्थी अपने अधिकारों से अनभिज्ञ होते हैं, और कानून प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा गलत तरीके से कानून लागू करना स्थिति को और अधिक जटिल बना सकता है।
- अपराधों की सीमित परिभाषा: कुछ अपराध जैसे ब्लैकमेलिंग, जो SC/ST समुदायों को प्रभावित करते हैं, उन्हें वर्तमान अधिनियम में "अत्याचार" नहीं माना गया है। ऐसे अपराधों को अधिनियम में शामिल करने के लिए संशोधन प्रस्तावित किया गया है।
- कानूनी व्याख्याएँ: जैसे कि सुभाष काशीनाथ महाजन बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले में, कोर्ट के फैसलों ने इस अधिनियम के दायरे और उसकी व्याख्या को लेकर सवाल खड़े किए हैं, खासकर प्राथमिक जांच और अग्रिम जमानत जैसे मामलों में। वहीं, यूनियन ऑफ इंडिया बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले में, कोर्ट ने SC/ST समुदाय के अधिकारों की रक्षा के लिए अधिनियम के कड़े प्रावधानों को बरकरार रखा।
SC/ST अत्याचार अधिनियम पर सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णय
यहां सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वर्ष 2023 में पारित कुछ महत्वपूर्ण निर्णय दिए गए हैं:
मामला: श्री गुलाम मुस्तफा बनाम भारत संघ (2023) में सुप्रीम कोर्ट ने GM Infinite Dwelling (India) Private Limited के एमडी और अन्य के खिलाफ दर्ज FIR को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि पुलिस को SC/ST अधिनियम लागू करते समय विशेष सावधानी बरतनी चाहिए क्योंकि इस मामले में बिना उचित जांच के FIR दर्ज की गई थी।
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने शैलेश कुमार बनाम कर्नाटक राज्य (2023) मामले में निर्णय दिया कि केवल किसी व्यक्ति की जाति का उल्लेख करने भर से SC/ST अधिनियम की धारा 3 के तहत दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जब तक कि यह सिद्ध न हो कि उस जातिगत पहचान के कारण जानबूझकर अपमान किया गया था। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि जानबूझकर अपमान करने का उद्देश्य होना आवश्यक है।
निष्कर्ष
निष्कर्षतः, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 भारत में वंचित SC/ST समुदायों के खिलाफ अत्याचारों को रोकने के लिए एक प्रमुख विधिक आधार प्रदान करता है। यह अधिनियम लंबे समय से भेदभाव और अन्याय झेल रहे दलितों और आदिवासियों को कानूनी संरक्षण और न्याय सुनिश्चित करने के उद्देश्य से बना है। इसमें पीड़ितों के अधिकारों की सुरक्षा, पुनर्वास, विशेष न्यायालयों की स्थापना जैसे प्रावधान शामिल हैं। हालिया संशोधनों के माध्यम से इसके दायरे को और विस्तारित किया गया है।
हालांकि, अभी भी कई चुनौतियाँ बनी हुई हैं जैसे—पर्याप्त पुनर्वास की कमी, लाभार्थियों की जानकारी की कमी, और कुछ अपराधों की परिभाषा में छूट। इस अधिनियम का प्रभाव तभी पूर्ण रूप से साकार हो सकता है जब इसे प्रभावी ढंग से लागू किया जाए और सामाजिक जागरूकता को बढ़ाया जाए।
संदर्भ:
- अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989
- अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 का अवलोकन
- भारत में अनुसूचित जातियों और जनजातियों की समकालीन समस्याएं
- SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 – सामाजिक न्याय मंत्रालय
- Sri Ghulam Mustafa बनाम भारत संघ (2023)
- Shailesh Kumar बनाम कर्नाटक राज्य (2023)